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Sunday, 8 January 2023

परेशानात्मा

  



कुछ लोग निराशावाद के प्रति इतनी तन्मयता से आशावादी हो जाते हैं कि उन्हें हर एक चीज से परेशानी होती है और  उन्हें ईश्वर रचित या मानव निर्मित हर चीज परेशान करते रहती है।

उक्त प्रकार के मानवों की समस्या चाहे जो भी हो, लेकिन उनका एक ही कार्य होता है और वो है परेशान होना। चाहे दुःख हो या सुख, जीत हो या हार, अंधकार हो प्रकाश, उन्नति हो या दुर्गती, उत्कर्ष हो या अपकर्ष; मतलब जीवन के गुजरते हर पल में उन्हें सांस लेने से भी अधिक आवश्यक यह होता है कि वो परेशान हों!

ठीक उपर्युक्त वर्णित व्यक्ति जैसे हीं अपने खोपड़ी पर सारे निराशावाद के गुणों के लोड से ओवरलोडेड एक परेशान आत्मा हैं हमारे गाँव के; उनका शुभ नाम सुखलाल है। हमारे गाँव के भूगोल के अनुसार पहले उनका घर गाँव के सबसे अंत में था और उन्हें इस बात से भी खासा परेशानी हुआ करती थी। उनको लगता था कि जो लोग गाँव के आगे रहते हैं वो कहीं से आने के बाद घर जल्दी पहुँच जाते हैं और उन्हें उनके बनिस्पत कुछ ज्यादा चलना पड़ता है, मतलब उन्हें अपने पग से कुछ दूर चलने से भी परेशानी थी। और उन्हें ऐसा लगता था कि दीवाली के दिन जब लक्ष्मी माता गाँव-भ्रमण पर आती हैं तो वह गाँव के आगे वाले मकानों में पहले पहुँच जाती हैं और सब धन उन्हीं के यहां उड़ेल देती हैं। उनके जेहन पर निराशा इस कदर हावी था कि वे भोजन करते-करते इस बात से परेशान हो जाते थे कि उनके थाल का भोजन उनके खाने से समाप्त हो जाएगा और वे फिर उस थाल को अपने सामने से हटा देते थे।

वे दो भाई हैं। सुखलाल खुद खेती का काम देखते हैं और उनका छोटा भाई कुछ दिन तक पढ़ने के पश्चात अपने पढ़ाई-लिखाई को यूरिया खाद के बोरे से बने झोले में कैद कर के रख दिया था और अब वह गाँव का युवा नेता बन गया है। जो अपने जन्मदिवस पर अपने ही खर्चे से अपनी बड़ी सी तस्वीर गाँव के चौक पर लगाकर स्वयं को स्वयं के द्वारा बधाई संदेश दिया करता है। अब आप सोचेंगे कि इन सब काम के लिए उसके पास पैसे कहाँ से आते हैं; तो मैं बता दूं कि भारत के प्रत्येक नेता की तरह उसने भी एक नया काम शुरू किया है- परोपकार करने का। वैसे बता दुँ कि वो चोरी करने को परोपकार कहता था और इस मामले में उसकी राय निम्नवत है-
"जब किसी के पास ज्यादा धन हो जाता है तो वह एक रोग से ग्रस्त हो जाता है जिसे चिंता कहते हैं, तो मैं उन व्यक्तियों के धन को चुरा कर उनपर उपकार करता हूँ और उन्हें धन के बोझ से मुक्त करता हूँ और ऐसा सुनिश्चित करता हूँ कि अब वो धन की सुरक्षा की चिंता के बजाय धन के चोरी होने की चिंता में परम सत्य मृत्यु को प्राप्त करें"। अपने इन्हीं परोपकारी कार्यों के चक्कर में एक बार जेल की भी हवा खा आया है। वो कहता है कि कितने लोग यहाँ बाहर देश भर में भूखे मर रहे हैं तो बाहर भूखे मरने से कही अच्छा है कि कम से कम जेल की हवा ही खाई जाए।

खैर माफ़ी चाहेंगे मैं भी कहाँ परेशानी से लबालब सुखलाल की गाथा गाते-गाते उसके भाई की परोपकार की कहानियों को सुना के आपको परेशान कर रहा हूँ। सच्च में परेशानी हर जगह है!

सुखलाल औऱ उनके पिता अपने छोटे बेटे की इन्हीं परोपकारी नीतियों की वजह से काफ़ी परेशान रहते हैं और उनलोगों का इसबार परेशान होना लाज़मी ही है। बेचारे सुखलाल परेशानी को इतनी देर सर पर बिठाए हैं कि उनके सर के बाल भी परेशान होकर शहीद हो गए और बाल शहीद होते-होते सुखलाल को गंजेपन की परेशानी थोपते गए। अब सुखलाल अपने परेशानियों के जखीरे में एक और अनमोल परेशानी को जोड़ते हुए अब अपने बालों को लेकर भी परेशान रहने लगे।अब उन्हें दूसरों के माथे पर लहलाती हुई बाल से भी परेशानी होने लगी। जो मिलता उसी से कहते "सर पर बाल न होना भी उत्तम हीं है कंघी, तेल, शैम्पू और बाल कटवाने के खर्चे से छुटकारा मिलता है। देखो- "उस सम्भुआ को, उसकी आधी कमाई तो सर के बाल की साज-सज्जा में ही उड़ जाती है"।उनकी परेशानियों की पराकाष्ठा इसी बात से समझिए कि अगर वो किसी के यहाँ आमंत्रण पाकर (खुद किसी को नहीं आमंत्रित करते, उन्हें चीड़ था कि उनके धन को किसी दूसरे के भोजन पर व्यय करना पड़ता) उसके यहाँ भोजन करने गए हैं तो उन्हें वहाँ पर परोसे जा रहे चावल के माप से (चावल ज्यादा मोटा है या पतला है), रोटी के परिमाप से, सब्जी में आलू के टुकड़े का आकार सही है कि नहीं आदि ऐसी तमाम बेकार चीजें उन्हें उतना ही परेशान करती जितना विमुद्रिकरण ने भारतीय जनता को परेशान किया था।

सुखलाल और उनके पिता ने छोटे भाई को एक किराने की दुकान खोल दी और समयानुसार शादी के बोझ और पत्नी की नियमित फटकार से छोटू अपने परोपकारी कामों को छोड़कर अपने दुकान में रम गया और उसकी दुकान चल निकली।

अब सुखलाल को अपने भाई की तरक्की से भी परेशानी होने लगी। लोगो से कहते कि उनका छोटा भाई धोखेबाज है और ग्राहकों को ठग के अपना घर भर रहा है और वो खेतों में खेत आ रहे हैं फिर भी लक्ष्मी माता न जाने किन कारणों से उनसे रूठ गई हैं। खैर, दोनों में झगड़ा हुआ और दोनों आपस में बटवारा कर लिए। बँटवारे की भी बड़ी लम्बी कहानी है वो मैं नहीं बताउंगा क्योंकि उसे सुन आप परेशान हो जाएंगे और आपको परेशान करने का मेरा कोई इरादा नहीं है।

बँटवारे में सुखलाल को रहने के लिए गाँव के आगे वाली जमीन मिली उन्होंने घर बनाया और फिर परिवार समेत रहने लगे। गाँव के पीछे में घर होने से जो परेशनी उन्हें हो रही थी उससे छुटकारा मिलने के बाद कुछ दिन तो बहुत खुश रहे।कभी-कभी वो इतने खुश होते कि अपने भाई की बुराई रोड पर जाने वाले हर व्यक्ति से करते और उन्हें बताते की कैसे उनके भाई ने उनसे बेईमानी की और वो कितने परेशान रहे।

वे परेशानी को जीते हैं उन्हें इस बात से भी परेशानी होती थी कि ठंड के मौसम में में ठंड क्यों पड़ रही है। भगवान ने अति कर रखा है। फिर गर्मी आती तो उन्हें गर्मी से भी समान रूप से शिकायत रहती की सूर्य भगवान अति कर रहे हैं और जब बरसात आती तो उसे बरसात से भी परेशानी होती और वो कहता इंद्र भगवान इतना बरस क्यों रहे हैं? उसे लगता मानो ईश्वर ने सारी ठंड, सूर्य देव ने अपने प्रकाश का सारा तेज और इंद्र देव ने पानी की सारी टँकी उसके घर के लिए हीं रखी हो और यह कोई दैविक साजिश के तहत सभी देव उसके ऊपर देश-दुनिया के लोगों से ज्यादा ठंड-गर्मी-बरसात की मार उसे दे रहे हैं।

समय बीतते गया लेकिन परेशान होने की उनकी आदत समय के साथ और मजबूत होती रही। अब उनका मकान गाँव के ठीक शुरुआत में था और उनको इस बात से भी बड़ी घोर परेशानी होने लगी थी। उन्हें लगता था कि गाँव में आने वाला हर एक व्यक्ति उनकी मकान की ओर देखता है और उसे नज़र लगाता है। उनके मकान के की छत के छजे एक कोने से जंग खाने से टूट रहे थे और वो इसका दोष उन्हीं नजरबटु को देते थे जो आते-जाते उनकी मकान की ओर बुरी नज़र से देखते थे। खैर, टूटते छत के लाइलाज बीमारी का इलाज़ उन्होंने नींबू-मिर्ची का माला और दरवाजे पर एक टूटे हुए काले जूते को टांग कर कर दिया।

उनको समाज-सरकार-मानव-सन्त-जानवर आदि-आदि से सबसे से कुछ न कुछ समस्याएँ रहती हीं रहती हैं और उन समस्यायों का पाठ व उवाच रोड पर जाते हुए लगभग सभी राहगीरों से कर ही देते हैं, क्योंकि जैसा कि अक्सर होता है रोड के किनारे रहने वाले लोग अपने बगल से गुजरती हुई सड़क पर अपना आधा अधिपत्य जमा लेते हैं ठीक उसी प्रकार सुखलाल ने भी अपने बगल के सड़क पर आधा से अधिक अधिपत्य अपने जानवरों को बांध कर, अपने घर के कूड़े फेंककर तथा सुबह-शाम बैठक लगा कर कर लिया था।प्रायः एक कच्छा-बनियान पहने, माथे पर चितकबरे अंगोछे से मुरेठा बांधे तथा अपने सुविधानुसार अपने छोटे बेटे को कभी कांधे तो कभी गोद पर बिठाए आते-जाते लोगों की परेशानियों को न समझते हुए अपनी परेशानियों को सुनाया करते हैं।

जब उनके बगल वाली सड़क पक्की नहीं थी उससे भी उन्हें परेशानी थी और अब जब पक्की हो गई है उससे भी उन्हें परेशानी है। वे कहते हैं कि पक्की सड़को के कारण ही धरती के अंदर का जल सूखता जा रहा है। सड़क पक्की होने के कारण वर्षाजल भूमकगत नहीं हो पाता है और भूजल का स्तर कम होता जा रहा है।
जब उनके बच्चे बड़े होने लगे तो उन्हें इस बात से परेशानी होने लगी कि उनके बच्चे की उंच्चाई उनके पड़ोसी के बच्चे से एक इंच कम क्यों है! जब कोई वे कपड़े खरीद लाते और वह कपड़ा जल्दी फट जाता तो कहते- जल्दी फट गई नक़ली होगी और जब जल्दी नहीं फटता तो कहते आखिर ये फट क्यों नहीं रहा!

खैर, उन्हें नई जगह पर रहते करीब दस वर्ष बीत गए और उनके छज्जे नींबू-मिर्च और फटे काले जूते के इलाज के वावजूद जंग खा कर एक दिन पूरी तरह गिर पड़ा, जिसका सारा श्रेय अपने पड़ोसी की पत्नी पर लगाते हुए उन्होंने चिंता जताई कि-"सब उनके तथाकथिक प्रगति से जलते हैं और इसी क्रम में जलते हुए लोगो ने उनके घर को नज़र लगाकर उनके छत के छजे को गिरा दिया, और न जाने आगे क्या कर दे वो कलमुँही इसलिए अब वो यहाँ नहीं रहेंगे, गांव के बीचों बीच घर बनाकर रहेंगे ताकि घर किसी की गलत निगाहों से बचा रहे।"

सुखराम अब गांव के बीच में घर बनाकर रहते हैं। इसी दशहरे की छूटी में जब मैं उनकी बगल की गली से गुजर रहा था तो देखा कि वो अपनी पत्नी को सभी परेशानियों का जड़ बतातकर उससे लड़ रहे थे। मैं देख उनसे पूछ बैठा और सब कैसे हो दादा कोई परेशानी तो नहीं?
खड़े होकर अपनी लूँगी कसते हुए बोले क्या बताऊँ जब से इधर आया हूँ गाँव के बीच में दम से घुटा जा रहा है। ठंड में धूप के लिए तरस जाता हूँ, गर्मी में ठंडी हवा के लिए और बरसात में इतनी कीचड़ हो जाते हैं कि निकलना दूभर हो जाता है।बहुत परेशानी है। कोई सुनने वाला ही नहीं है। भगवान की भक्ति करके भी परेशान हूँ! अब वो भी कुछ नही सुनते!भगवान का यूँ नज़रंदाज़ करना भी अब परेशान करने लगा है।

मैंने मन ही मन कहा- आप किसी वस्तु या व्यक्ति से नहीं, आप परेशान होते-होते परेशान हो गए हैं!

नोट-हरिशंकर परसाई की एक निबन्ध से प्रेरित।

Saturday, 4 June 2022

एकला चलो रे!




गुरुदेव टैगोर यह वाक्य बोले थे। ये गाना हमें ऊर्जा से भरता है। इसमें कहा गया है कि किसी के उपर निर्भर क्यों रहना हमें अपने पथ पर अकेले ही चलना चाहिए। लेकिन इसके पीछे की कहानी कुछ और होगी...क्योंकि अकेला चलना तो बेकार और सुस्त सा होता है फिर गुरुदेव ने लोगों के इतने सगे–संबंधियों, नाते–रिश्तेदार, इष्ट–मित्रों आदि के रहते अकेले चलने की प्रेरणा क्यों दे रहे हैं!? 

अब इसका कारण मुझे पता चल गया है। हमारे एक गुरुजी हैं उन्होंने ने हमें सिखाया है कि आदमी जन्म से ही धूर्त और लालची होता है। सब अपने मौका का इन्तेजार करते हैं। हम-आप-सब बस इस बात का इन्तेजार करते हैं कि कब हमें भी किसी को चहेटने का मौका मिले और हम उसे चहेट लें।जबतक नहीं मिलता है मौका तबतक ईमानदार बने रहते हैं और मिलते ही धर के रगड़ देते हैं। कोई–कोई तो आजीवन ईमानदार रहता है, क्योंकि उसको आजीवन कुछ लूटने को नहीं मिला होता है। वो प्रत्येक दिन सुबह से शाम तक बेईमानों को गरिया रहा होता है। दरअसल वो बेइमानों को नहीं गरियाता है, अपने भाग्य को रपेट–रपेट के गरियाते रहता है कि आखिर उसे क्यों न मौका मिला किसी आदमी को ठगने का, किसी से दुर्व्यवहार करने का, किसी को नीचा दिखाने का आदि-आदि। खैर, माफी चाहेंगे रास्ता भटक गए थे। ये भी है कुछ बिरले होते हैं जो सच में अच्छे होते हैं। अच्छा अब अपने शोध-पत्र की ओर लौटते हैं। 

गुरुदेव ने एकला चलो का नारा इसलिए दिया होगा क्योंकि वो अपने साथ चलने वालों से परेशान हो गए होंगे। वे ठहरे इतने बड़े साधु आदमी। रोज कोई न कोई आकर कुछ न कुछ मांगता होगा। वो जरूरतमंदों के मांगने से परेशान नहीं हुए होंगे वे परेशान हुए होंगे पुष्ट, सक्षम अजर बलशालियों के मांगने की कला देखकर। इस प्रजाति के लोग भीतर से बहुत चालाक होता है और इनकी शिराओं में रक्त के स्थान पर कृतघ्नता का संचार होते रहता है। उन्हें कुछ लोग ऐसे मिले होंगे जो उनकी अच्छाई को उनकी कमजोरी समझकर उन्हें सताते होंगे और अपना रौब झाड़ते होंगे। उनकी नेकदिली को लोग मजबूरी समझते होंगे। और तब इन्हीं लोगों से तंग आकर उन्होंने कहा होगा कि एकला चलो रे। अकेले चलने में बहुत मजा है। हम भी अपने आस पास में देखें हैं।

 ऐसे माँगेन्द्र जी टाइप के लोगों की भरमार है। ये तमीज से मांगते है। और मांग पूर्ति के पश्चात दिखाते हैं आपको अपनी बदतमीजी। ये आपकी सीढ़ी पर सबसे पहले ऊपर चढ़ जाएँगे फिर ऊपर से आपको सीढ़ी झुकार पलटा देंगे। बदतमीजी की पराकाष्ठा तो तब होती है जब इन्हें पुनः ऊपर जाने की आवश्यकता आन पड़ती है तो ये फिर आपके पास आपकी सीढ़ी मांगने आएँगे और फिर अगर आप झुक के इनकी बात मान लेते हैं तो ये पुनः वही काम दुहराएँगे। ये सीरियल ऑफण्डर होते हैं। ये स्वार्थियों के स्वामी होते हैं। ये ऐसी रस्सी होते हैं जो जल चुके हैं लेकिन इनकी ऐंठन बरकार रहती है। इन्हें बस पहचानने की आवश्यकता है। पहचानिए और फुँक के उड़ा दीजिये। इनके दिखावटी साथ से बेहतर है, मिलों अकेले चलना और वर्षों एकांत में रहना। इससे ये साबित नहीं होता कि सभी एक ही थैले के टट्टू हैं।कुछ लोग अच्छे होते हैं और कुछ लोग सही में जरूरतमंद होते हैं। इनलोगों की सदैव मदद करें। किन्तु गुरुदेव का बात हमेशा याद रखें कि चाहे लाखों लोग आपके साथ चलने को परेशान हैं आपको चलना अकेले ही है। 


अंत में जो मैंने एकला चलो का अर्थ अपने लिए निकाला है वह यह है कि हमें 'क्या हार में क्या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं" वाली मानसिक स्थिति में अपने आप को रखना चाहिए। सुख का सृजन वहीं से होगा। हम जो सभी से उम्मीद लगाए रहते हैं और उस उम्मीद के पूर्ण होने पर दुःखी होते हैं उस उम्मीद से ही छुटकारा पाकर एकला चलना है।

Monday, 22 March 2021

इतिहास का ढोल!

बिहार

 


हाँ, हम उसी बिहार से हैं जहाँ के लोगों के पास दस अंकों के मोबाइल नंबर में सिर्फ जीरो-जीरो होता है।(कोरोना जाँच घोटाला) ऐसा हमने आर्यभट्ट के सम्मान में किया था। वही बिहार से हैं जहाँ पर एक प्रख्यात गणितज्ञ को मरणोपरांत एक एम्बुलेंस तक नहीं मिला सका, वही बिहार से हैं जहाँ की शिक्षा व्यवस्था पंचवर्षीय योजना बन चुकी है। वर्तमान में और ऐसे कई उदाहरण हैं जिसपर हम गर्व से अपने सर को नीचे कर सकते हैं!


हमारे पूर्वजों ने एक बढ़िया ब्रांड का महंगा कपड़ा हमारे लिए छोड़ दिया है। उन्हें परलोक सिधारे वर्षों बीत चुके हैं और अब हमारी खद्दर की धोती भी खरीदने की औकात नहीं बची है! वर्तमान में लोग जब हमारी अकर्मण्यता पर उँगली उठाते हैं तब हम उन्हें बताते हैं कि हमारे पास भी एक पूर्वजों का दिया हुआ बढ़िया सूट है। कोई ऐसे-कैसे हमें निकम्मा कह सकता है!


खैर, आज बिहार दिवस है और आज हम बिहारी अपने गौरवपूर्ण अतीत को याद करके लहालोट होंगे।धतिंगो का नाच करेंगे। आह बिहार से वाह-वाह बिहार करेंगे। अपने आप को आईएस उत्पादक की संज्ञा देते हुए शर्माएँगे और बिहारी होने पर गर्व करेंगे। ऐसा कहना ग़लत नहीं होगा कि हमलोग अपने इतिहास का ही खा रहे हैं और उसको खाते-खाते हम उसकी गुठली तक को खाकर खत्म कर चुके हैं। अब बस कोई देख न ले कि हमारे पास कोई फल खाने को बचा नहीं है तो हम अपने मुँह पर हाथ रखे रहते हैं और आह इतिहास-सु स्वादु इतिहास-गौरवपूर्ण इतिहास का चटकारा लगाते रहते हैं।


और इनसब की आड़ में अपने घनघोर जातिवाद से लेकर खराब राजनीतिक व्यवस्था को स्थान विशेष में रख लेते हैं और वर्तमान में क्या हो? कैसे हो? सोचना छोड़कर अपने पिछड़ेपन के कारकों को नजरअंदाज करके अपने मन को अशोक और बुद्ध के काल में विचरण करवाते हुए रात को रोज रात को सो जाते हैं।अपने इतिहास पर गर्व करना गलत बात नहीं है परंतु, हमें अपने वर्तमान को भी देखना बेहद जरूरी है क्योंकि जब हम इतिहास बने तो आने वाला भविष्य भी हमारा नाम उसी सम्मान और ओज से ले जैसे हम अपने पुर्वजों को याद करके फुले नहीं समाते हैं।


फिर कल से वही... 'वोट अपने जाति के पड़े के चाही' वाली मानसिकता से दिन आरम्भ कर लेते हैं।हम बिहार वासी को अपने गौरवशाली इतिहास के चिरकालिक सन्नाटे में आत्ममुग्ध होकर विहार करने का लत लग गया है। ये लत दारू से भी अधिक हानिकारक है, जिसपर कोई भी सुशासन बैन नहीं लगा सकता है, क्योंकि यह हम सब के अंदर में ही उत्पादित हो रहा है। इतिहास पर मुग्ध होने की फैक्टरी से निकले वाला धुआँ हमें हमारे वर्तमान को देखने नहीं दे रहा है। यह धुआँ  मंजिल के रास्ते में पसर गया है भ्रष्टाचार की तरह। भ्रष्टाचार आलसी होता है। यह एकबार जहाँ बैठ गया उठता नहीं है, पसर जाता है और धीरे-धीरे अपनी टांगे फैलाता जाता है। कोरोना है यह। एक बार फैला तो फिर ये किसी भी मास्क और सेनिटाइजर से शांत नहीं होगा।खैर, हमारी आँखों की पुतलियों पर चाणक्य और आर्यभट्ट की कृतियों और विद्वता ने इस तरह से पर्दा लगा दिया है कि हमें यह दिखाई नहीं देता कि एक सड़ी हुई बीमारी हमारे यहाँ सैंकड़ों बच्चों को खा जाती है। बाढ़ से बचाने वाले बांध को चूहे खा जा रहे हैं।  बाढ़ प्रत्येक साल लोगों का भविष्य बहा ले जा रहा है और उसी बाढ़ के पानी में नेताओं का ज़मीर प्रत्येक साल थोड़ा थोड़ा डूबते-डूबते अब लगभग समाप्त हो चुका है।


वर्तमान में हम अपनी जाति से आने वाले नेताओं के द्वारा किये गए भ्रष्टाचार और बलात्कार तक को समर्थन देते हुए अपनी मूँछों को गर्व से ऊपर उठाते हैं। हमारे भीतर अज्ञानता और रूढ़ सोंच  इस प्रकार चौकड़ी मार के बैठ गया है कि हमारे घर में भोजन हो न हो इसपे सोचने तक नहीं देता वहीं हमारे नेता हमें ही लूट के अपने घर भर रहे हैं और हम उनके लिए जान तक देने को तैयार हैं।अपने इतिहास पर गर्व करना गलत बात नहीं है परंतु, हमें अपने वर्तमान को भी देखना बेहद जरूरी है क्योंकि जब हम इतिहास बने तो आने वाला भविष्य भी हमारा नाम उसी सम्मान और ओज से ले जैसे हम अपने पुर्वजों को याद करके फुले नहीं समाते हैं।



खैर, इसमें कोई दो-मत नहीं है कि हमारा अतीत गौरवपूर्ण रहा है किंतु उसी को ढोना और उसी के नाम पर अपना नाम बनाना तो ठीक उसी प्रकार हुआ कि- स्वयं वर्तमान में हमने एक दुभ भी न उखाड़ी हो लेकिन, अपने अकूत बपौती सम्पत्ति को दिखा-दिखा के अपनी अकर्मण्यता को छिपा रहे हैं।यह एक प्रकार का भ्रष्टाचार है जो हमारे भीतर और हमारे वर्तमान में फैला हुआ है।इतिहास के सब्ज़बाग दिखाने  का भ्रष्टाचार। इतिहास को इतना दिखाया गया है कि वह अब घिस चुका है।रहम करें उसपर।


ऐसा नहीं है कि वर्तमान में बिहार  में सिर्फ कमियाँ ही हैं, बस फिलहाल यहाँ  बढ़िया कुछ हो नहीं रहा है और स्वयं से होगा भी नहीं।हमें ही कुछ करना होगा। जिसे जो काम मिला है उसे उसके काम को ईमानदारी से करना होगा। तभी कुछ हो पायेगा। 


थोड़ी हिम्मत जुटाकर कुछ 'बढ़िया' होने के लिए तैयार भी होता है तो यहाँ का सिस्टम उसका पैंट पीछे से खींचकर खोल देता है। 'बढ़िया' बेचारा शरमा के भाग जाता है। कहें तो बिहार के कौरवों की सभा में बेचारे 'बढिया' का चीरहरण हो रहा है और फिलहाल कोई 'कन्हैया' उसे बचाने आएँगे, ऐसा लगता नहीं है।


फिर भी, "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" वाक्य के अनुसार बिहार से प्रेम तो है ही। लेकिन, इस जन्मभूमि को इसके गौरवपूर्ण इतिहास के जैसा बनाने के लिए मैदान में उतरना होगा, अपने ऐतिहासिक तथ्यों से प्रेरणा लेकर। न कि, इसका ढोल बना के पीटने से।ऐसे एकदिन ढोल फट जाएगा!


Tuesday, 9 March 2021

चाय और चुनाव

फोट-: ट्विटर
 


हमारे देश में चुनाव शाश्वत है, क्योंकि हम लोकतंत्र के सच्चे और सबसे बड़े ध्वज वाहक जो हैं।जो सबसे बड़ा विषय वस्तु चुनावों में हावी रहता है वो है 'चाय', खासकर के 2014 से तो यह विषय सर्वोच्च शिखर पर है। चुनाव के समय सभी बड़े नेता चाय में अपनी राजनीति रूपी दूध और शक्कर को स्वादानुसार प्रयोग करते रहते हैं ताकि बढ़िया कड़क जीत की सुस्वादु चाय तैयार हो सके।खैर, बंगाल में चुनाव है और वहाँ भी यह विषय अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुका है।हाल ही में जो चाय के साथ नई नेत्री ने अपना गठबंधन किया है वो हैं वहाँ की वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी।


इसी चाय और चुनाव के परस्पर सम्बंध को संदर्भित करते हुए मैंने "चाय और चुनाव" शीर्षक के साथ कविता लिखी है....


"चाय और चुनाव"


मेरी समस्या,

तुम्हारी समस्या

रमुआ, बुधिया और

खलिफवा की समस्या,

उनके बैल, उनके खेत और 

उनकी बछिया की समस्या

कभी खत्म नहीं होगी;

उसको जात-पात

धर्म-कुकर्म, आदि-अनादि

फलना-ढिमकना के आँच पर

जुमलों के दूध में

सत्ता और शक्ति के शक्कर में

घोलकर

वोटनुमा कप में डालकर

नेता जी उसे पी जायेंगे

चुनाव को चाय बूझकर;

लेकिन 

हमसब की समस्या बची रहेगी

जस का तस

जैसे चाय पीने के बाद

अंत में,

 कप के सतह पर

बच जाती है, चायपत्ती!

Monday, 1 March 2021

बसंत का घोटाला!

 

【संदर्भ-: अभी-अभी फरवरी के महीने ने रुखसत ली है।फरवरी माह में दिनांक 27 को दिल्ली का तापमान 31.7℃ पहुँच गया था।】


बसंत ऋतु का नाम सुनते ही मन का उपवन खिल उठता है।ठीक वैसे ही जैसे संसद में किसी भी सामाजिक योजना का नाम सुनकर आम-जन को महसूस  होता है। जैसे बसंत के आगमन से लगता है कि हमारे चारों तरफ खुशहाली फैल जाएगी और माहौल खुशबुनुमा हो जाएगा, ठीक वैसे ही योजनाओं के नाम सुनकर लगता है अब हमारी समस्याएँ जो हमारे किराए के  घर में स्थाई रूप से एक कमरा लेकर बैठी है वो अब घरविहीन हो जाएगी और हमसब आराम से इस जीवन में समस्या के बिना भी जीवित रहने का अपना सपना पूरा कर सकेंगे!


लेकिन ऐसा हो नहीं पाता।जो हो पाता है उसे घोटाला कहते हैं।उल्टा, हमारी समस्याएँ जो एक घर में बैठी हुई थी अब खटिया लेकर उसपर सो जाती हैं और हमलोग खटिया से जमीन पर आ जाते हैं। इस बार बसंत के साथ भी ऐसा ही हुआ। 

प्रकृति के संसद में यह योजना बनी कि धरती पर अनेक समस्याओं से पीड़ितों के लिए इसबार  सुहाना मौसम का रिलीफ पैकेज जारी किया जाएगा और आमजन आनंद का सुख लें इसके लिए बसंत को अधिक दिनों के लिए धरती पर प्रवास करवाया जाएगा। सबकुछ तय हो गया। बसंत को धरती पर पहुँचाने का टेंडर भी पास हो गया।हमारे यहाँ टेंडर-ठिका नेताओं के या बड़े लोगों के सम्बन्धियों को देने की परंपरा है।हमलोग परम्परा प्रेमी हैं और उसमें भरोसा रखते हैं तथा सदैव परम्परा का स्टेटस-को बनाये रखते हैं। इसलिए परम्परा का पालन करते हुए बसंत को धरती पर भेजने का ठिका गर्मी के एक सम्बन्धी को मिल गया। अब बस धरती पर बसंत को समूल पहुँचाने का काम रह गया था। बसंत धरती पर अपने प्रस्थान करने की तैयारी ही कर रहा था तबतक  ऊपर से फोन आया, हमारे यहाँ कुछ भी अच्छा होने वाला होता है तो ऊपर से फोन आ जाता है और ऊपर में जो बैठा होता है उसे अच्छा करने में अच्छा नहीं लगता है। खैर, बसंत को ऐसा कहा गया कि- "इसबार उसे धरती पर भेजा नहीं जाएगा, उसे ऊपर से नीचे तक बैठे बाबुओं के बीच कमीशन के रूप में बांटा जाएगा तथा जनता को मूर्ख बनाया जाए इसके लिए धरती पर उसका सिर्फ चेहरा दिखाकर,  गर्मी को पीछे से भेज दिया जाएगा क्योंकि गर्मी जी हमें चुनाव में अधिक चंदा देते हैं।" हमारे यहाँ की ऐतिहासिक परम्परा रही है कि चुनावी चंदा देने वालों को नेता अपना बाप मानते हैं और उनके लिए ये नेता दस-बीस करोड़ जनता की जान भी ये कहते हुए ले सकते हैं कि- "हमारा ये जान-धन लेने की योजना  राष्ट्रहित में है और ये लोग इस देश में जनसख्या बढ़ाने का दुःसाहस कर रहे थे और ये निर्थक ही सांस लेकर देश के ऑक्सीजन स्तर को कम कर रहे थे! ये विदेशी साजिश में भी शामिल थे और सबसे महत्वपूर्ण बात कि ये धरती पर बोझ बने हुए थे, इसलिए इन्हें मारकर धरती का बोझ हल्का कर दिया।"


जैसा होना था वैसा ही हुआ, बाजे-गाजे के साथ बसंत रूपी योजना को हाथी-ठीकेदार (ठीकेदार हाथी जैसा ही होता है।आमजन रूपी कुत्ता उसपे भौंकते रहते हैं उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि 'ऊपर' में उसके भी मौसा जी बैठे होते हैं जो उसे फर्क पड़ने नहीं देते।) पर बैठा के जनता के सामने लाया गया। जनता खुशी से ठीक वैसे ही झूम रही थी जैसे प्रधानमंत्री आवास योजना में घर पास होने पर एक गृहविहीन खुश होता है।जश्न में लोग जयकारे लगा रहे थे।आ गए अच्छे दिन!आ गए अच्छे दिन! हम सभी जानते हैं कि खुशी से झूमते लोगों को कुछ दिखाई नहीं देता इसलिए तो उन्हें बढ़ती पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस के दाम में भी कोई न कोई देशहित होता दिखाई देता है! इसी मौके का लाभ उठाकर हाथी-ठीकेदार ने अपने सूढ़ से बसंत को पकड़कर दूर नेताओं के बंगलों की तरफ फेंक दिया।सुख का जन्मसिद्ध अधिकार इस लोकतंत्र में सिर्फ नेताओं और उनके टुच्चे लोगों को ही होता है क्योंकि वो दिन-रात जनता के खून चूसने का काम करते हैं!अब इधर खुशी से नाचते लोगों के ऊपर जब गर्मी का ताप रूपी झापड़ पड़ा तब जाकर कहीं उनकी चेतना वापस लौटी। 

तभी पसीना पोछते हुए एक विपक्षी दल के कार्यकर्ता ने कहा- इस बार बसंत का घोटाला हो गया! हम सरकार से इसपर एक उच्चस्तरीय सरकारी जाँच कमीशन बैठाने की मांग करते हैं।

Sunday, 18 October 2020

दास का कैपिटल!


 

कि वे हमारे ही बीच के हैं; ऐसा वे हमें प्रत्येक पाँच वर्षों पर कहा करते हैं और इतनी तल्लीनता के साथ कहते हैं कि हम उनकी बात मान भी लेते हैं; बिना कुछ पूछे कि- आखिर आप हमारे बीच के कैसे हुए? हमारे बीच में तो इतना साफ सुथरा कपड़ा कोई नहीं पहनता!लेकिन हममें से कोई ऐसा नहीं पूछता।ऐसा नहीं है कि ऐसा पूछने की हममें से किसी को हिम्मत नहीं है, बल्कि हिम्मत तो हमारे अंदर ठूस-ठूस के भरा हुआ है।ठीक उसी प्रकार जैसे रमधरिया डीलर के गोदाम में ठूस-ठूस के कालाबाजारी वाले अनाज की बोरियाँ भरी हुई हैं।हम बस इसलिए उनकी बात मान लेते हैं कि आखिर इस फरेबी दुनिया में इतना बड़ा आदमी जब ऐसा कह रहा है कि हम आपके ही हैं और आपके बीच से ही हैं तो फिर मानने में हमारा क्या जाता है?एक वोट ही न!


इतने पर भी, जब कि हमारे चेहरे के नक्श से और थोथुने के लटकन  पर साफ दिख रहा होता है कि हमने उसकी 'हमारे ही बीच से' होने वाली बात को ठीक उसी प्रकार स्वीकार कर लिया है जैसे कि मोदी जी की नाली से गैस निकलने वाली बात पूरे भारतवर्ष ने मान ली है, किन्तु नेता-मन के चंचल स्वभाव होने के कारण वो एक और भारी-भरकम वक्तव्य अपने मुखारविंद से हमारे बाह्यकर्ण की भितियों तक निर्यातित करते हैं और बड़े ही मूर्ख बनाने वाले स्वर में कहते हैं- हम तो आपके दास हैं, सेवक हैं और जब हमारा जन्म हुआ था तब नर्स ने हमारे पिता जी के कान में लड़का हुआ है कहने के बजाय, यह कहा था कि अरे त्रिलोचनजी आपके घर में तो गरीबों का मसीहा हुआ है!


इतना सुनते ही हमारे उस भीड़ के आदरणीय सभासदों के पूर्वकाल से ही लटके हुए थोथुनों ने अपने लटकने का तरीका बदलकर ठीक उस प्रकार का कर लिया जैसा कि नाक में नेटा लटकाए हुए एक पाँच साल के बच्चे का बेतरतीब ढंग से नाड़ा लटका हुआ होता है।


खैर, हम विश्व के उस महान कौम के सदस्य हैं जिसे लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में "जनता" कहते हैं और इस कौम के सभी सदस्यों का एक नैसर्गिक गुण होता है, जिसमें वे नेताओं की बात बिना ज्यादा ऊर्जा-व्यय किये हुए मान लिया करते हैं।पशुओं के साथ-साथ कई नेताओं के पास भी चारा होता है जिसे वे खा सकते हैं किंतु जनता नामक कौम के जीवों के पास अपने नेताओं की बात मानने के सिवा कोई चारा नहीं होता है।अतः हमने उनकी दूसरी भी बात मान ली कि वे हम गरीबों के दास हैं!


ये जो नेता जी हैं जो की हमारे ही बीच के हैं वे इससाल सातवीं बार हमारे गाँव में अपने फ़्यूज बल्बों के झालर समान चुनावी वादों के साथ आये हैं और उस फ़्यूज बल्ब के झालर को एकबार पुनः हमारे वोट लेकर हमें बेचने वाले हैं।वे बहुत ही परम्परा-प्रेमी हैं और अपने पूर्वज नेताओं की भाँति ही वे परंपरागत रूप से सिर्फ चुनाव में ही नज़र आते हैं, ठीक वैसे ही जैसे भदोईया बेंग/मेढ़क भादो में टर्र-टर्राते हुए अपने शुभ दर्शन देता है और कुछ फतिंगों को अपना ग्रास बनाता है।नेताओं के लिए हम फतिंगों से कम नहीं हैं! ये नेता जी इन सातों बार के अपने अतिमहत्वपूर्ण चुनावी दौरा में कार्ल-मार्क्स, लोहिया के सिद्धांतों से लेकर जेपी से लेकर न जाने उन तमाम हस्तियों के नाम और सिद्धांतों के बारे में, हम जैसे कभी न किताबों के मुख देख सकने वाली अधिकतर जनता को बता दिया था कि वे महापुरुष जनता के हितार्थ बातें किया करते थे और चूँकि हमारे नेता जी भी उसी पथ पर चलते हैं तो वे भी जनता के हित के लिए ही काम किया करते हैं! लेकिन हे पाठक! उनमें और हमारे ही बीच से उठ खड़े हुए इस नेता जी में मात्र इतना फर्क था कि उन महापुरुषों ने बातों के अलावा गरीबों के हित में कुछ काम भी किया था, किंतु ये संसद से लेकर सड़क तक में सिर्फ गरीबों के हित की बातें किया करते हैं!इनके स्व-सिद्धांत "बातवाद" में इन्होंने कहा है कि जनता को अपने छुधापूर्ती हेतु काम करने से बचाने के लिए उनके पेट  को बातों से ही भर दिया जाना चाहिए ताकि सरकारी खजाने को सीधा स्विस बैंक में निर्यात कर दिया जा सके, क्योंकि भारत में लोगों के द्वारा भारतीय बैंकों को लोन के नामपर लूट लेने के मामले अधिक सामने आने लगे हैं।


नेताओं को पता होता है कि जनता के सब्र का बांध उनके द्वारा सरकारी पैसों से बनाये गए बांधों से मजबूत होता है और सरकारी बांधों को कुतरने वाले चूहे जनता के सब्र की बांध तक पहुँच नहीं सकेंगे।इसलिए वे जानते हैं कि कुछ भी जनोपयोगी कार्य न कर के भी मतोपयोगी भाषण जनता के बीच में परोसा जा सकता है, और अभी हमारे गाँव में हमारे ही बीच के तथा गरीबों के मसीहा नेता जी ठीक वैसा ही मतोपयोगी भाषण अपनी परम्परा के अनुसार हमें सुना रहे थे और हम भी परंपरागत अनसुने से होकर उनकी बातों को ठीक उसी प्रकार सुन रहे थे जैसे भौतिकी की कक्षा में शायर-हृदय के बालगण शिक्षक के द्वारा बताई जा रही आइंस्टीन के सिद्धांतों को सुनते हैं!


नेता जी का सातवीं बार गाँव में आगमन जिस दिन हुआ था उसी दिन शहर से अर्थशास्त्र में स्नातक कर के आये एक प्रचंड  बेरोजगार युवक गाँव में आया था।वह इस पारंपरिक नेता के गुण-दोष से भली-भाँति परिचित था।जैसे ही नेता जी ने मुँह और नाक को सम्पूर्ण कोण में एक साथ घुमाकर एकबार पुनः यह बोला कि- मैं तो गरीबो का मसीहा....।बात पूरी भी न हुई थी कि वो अर्थशास्त्री उठा, उसी समय मैं समझ गया कि अब इस नेता का ये अर्थशास्त्री आक अनर्थशास्त्री बना देगा।अर्थशास्त्री ने बड़े ही सरल व सहज बेइज्जती करने वाले स्वर में बोला- हे दास!जब तुम हमारे ही बीच के हो और हम जैसे गरीबों के दास भी कहते हो अपने आप को तब ये बताओ कि आखिर चुनाव के उपरांत तुम्हारा प्रदर्शन और जनदर्शन दोनों डेफिसिट में  क्यों रहता है?और ये बताओ कि हम गरीबों के घर की ओर लक्ष्मी माता कछुआ की गति से तथा आपके कोषागार में  खरहे की गति से क्यों पहुँचती हैं? हे मार्क्सवादी दास! आपका कैपिटल कोरोना और बेरोजगारों की संख्या की भाँति इतना फैल क्यों रहा है?


अचानक  हुए इस हमले में नेता जी की हालत उस भारतीय क्रिकेटर की तरह हो गई थी, जैसी हालत उसकी विदेशी पिचों पर बाउंसर झेलते-झेलते हो जाती है और उनका मुँह उस मध्यमवर्गीय परिवार के झोले की तरह लटका हुआ था, जो महीने भर के राशन के बोझ से अपने मालिक के हाथों में लटका हुआ होता है और उस झोले के निचले फटे हुए हिस्से से बैगन झाँक रहा होता है।


पेड़ के नीचे बैठे नेता जी और लोगों के द्वारा उन्हें सुनने के लिए की गई घेराबंदी इस कथोपकथन के उपरांत टूटने लगी थी।हम नेता जी बगल में गए और पूछे- "और कैसा चल रहा है चुनाव प्रचार?"

उन्होंने कहा- आ गए जले पर नमक छिड़कने।

हम बोले- आपकी सरकार ने नमक को भी कहाँ सस्ता छोड़ा है, जिसे आलतू-फालतू जगहों पर छिड़क सकें!



फोटो साभार-:गूगल

Monday, 14 September 2020

हिंदी मइया के नाम चिट्ठी


आदरणीया हिंदी मइया

आपकी जितनी ख्याति है उतना प्रणाम!


आशा करता हूँ आप सुखी होंगी।फरेब और झूठ से भरे दलदल में भी आप अपनी पौराणिक नींव पर अडिग खड़ी होंगी।

आप तो प्रत्येक पल हमारे साथ हैं।आपके बिना हमारा काम नहीं हो सकता लेकिन फिर भी आज ही वह शुभदिवस है जिस दिन हिंदी के ध्वज्वाहकों ने आपका जन्मदिवस मनाना तय किया था।आज मुँह में हाथ डाल-डाल के हिंदी को कोसने वाले लोगों के द्वारा हिंदी के गुण का बखान किया जाता है।कोई अंग्रेजी में हिंदी दिवस की शुभकामना देता है तो कोई अंग्रेजी को देवनागरी लिपि में लिखकर।

आपके तथाकथित जन्मदिवस पर सुबह से ही ट्विटर से लेकर तमाम तरह के समाचार प्रसारित करने वाले माध्यमों से आपको शुभकामनाएँ दी जा रही हैं।चपरासी से लेकर प्रधानमंत्री तक आपके गुण गाते थक नहीं रहे।एक ने तो यहाँ तक कह दिया कि आने वाला भविष्य हिंदी का है!हिंदी भाषा का भविष्य हो सकता है लेकिन जो ये कह रहे थे वे एकदम मुखौटा लगाकर घूमने वाले लोग हैं। ये आपके नाम पर जनता को ठगते हैं और मैं ये कहूँ तो ग़लत नहीं होगा कि ये हैप्पी हिंदी दिवस बोलने वाले डाकू हैं।

बचपन में दिवसों का ज्ञात इसलिए हुआ था क्योंकि अक्सर उस दिन छुट्टी का लाभ मिलता था।लेकिन धीरे-धीरे यह पता चला  और विद्वतजनों को कहते हुए सुना कि  दिवस उनका ही मनाया जाता है जो इस समाज में प्रताड़ित हैं, किन्तु आप प्रताड़ित नहीं हैं।आपके जो पुत्र अच्छे और ऊँचे पद पर विराजमान हैं वे आपको प्रताड़ित दिखा-दिखा कर पैसे बनाना चाहते हैं और आपके भोले-भाले पुत्रों को ठगते हैं व आपस में लड़वाते हैं।

मैं आपको एक बात बताना चाहता हूँ।यह हिंदी का गूगल ट्रांसलेट काल चल रहा है और यह बात उस दिन पक्की हो गई थी जब मैं दिल्ली विश्विद्यालय में हिंदी भाषा में पत्रकारिता करने के लिए नामांकन लिया था और हमें हमारे समकक्ष अंग्रेजी माध्यम वालों के पाठ्यक्रम को गूगल ट्रांसलेट करके दे दिया गया था, यथा सोशल आर्डर शीर्षक को सामाजिक  आदेश में बदल कर पढ़ाया जाने लगा!किन्तु, हिंदी पर गर्व और बढ़ा जब एक शिक्षक ने उसे ग़लत बताने की बजाय उसे ही पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया! उस दिन लगा हिंदी का नवयुग आ गया है! हिंदी का नया तारणहार आ गया है!आज आदरणीय भारतेंदु  की आत्मा कितनी खुश होगी!

आपको खतरा आपके उन्हीं ऊँच पदासीन पुत्रों से है जो आपके सेवकों को हिंदी भाषा का प्रयोग करने और इस भाषा में पढ़ाई करने के लिए आगे बढ़ाते हैं और पुनः यही लोग ऊँच शिक्षा में और अच्छे पदों पर नौकरी करने के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना अतिआवश्यक बताते हैं।

मैं आपसे ये शिकायत इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि मैं अंग्रेजी से या अन्य भाषाओं से नफरत करता हूँ।मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि आपको मैं बताना चाहता हूँ कि आपके ये पुत्र आपके ही डाल पर बैठकर आपके ही डाल को काटते हैं।ये भिन्न-भिन्न भाषा वालों को आपस में झगड़ा करवाते हैं ताकि इनकी ग़लती और इनका दोहरा चरित्र छुपा रहे।

हिंदी जैसे हमारी मातृ भाषा हैं वैसे ही सबकी अपनी अपनी होंगी।सबको अपने माताओं से प्यार होता है।क्या जबरदस्ती किसी के दूसरी माता को अपनी माता मनवाना ज्यादती नहीं है?ऐसे ही कई षड्यंत्र और ज्यादती आपके ये ऊँच पदासीन पुत्र करते हैं।

प्रत्येक वस्तु में बदलाव आता है।आपके भीतर भी आ रहा है।आपके अभिनव सेवक आपके ऊपर से नए-नए जिल्द चढ़ा रहे हैं।जरूरत है तो बस इस बात की कि आपके बड़े पुत्र आपके अंदर आती उस बदलवा पर नज़र रखें और उसे सही दिशा दें, न कि वे बदलाव को ही पूर्णतया ग़लत साबित करने पर तुले रहें।इससे ऐसा होगा कि आपके ही अपने घर में फुट पड़ेगा। अगर आपके अपने घर में ही मतभेद रहेगा तो फिर भाषा को बचाने का कौन सोचेगा!

जो प्रत्येक वर्ष वार्षिक क्रिया के रूप में आपको याद करते हैं  वे वही हैं जो आपको कबका वृद्धाश्रम में भेज चुके हैं।उन्हें चाहिए कि वे आपको रोज याद करें और जो आपको रोज याद करते हैं जिनका आपके बिना एक सेकंड काम नहीं चलता उन्हें कोसना बन्द कर दें।मिलकर लड़े, किसी दूसरे भाषा या भाषा बोलने वाले से नहीं बल्कि आपको अपने कलेवर बदलने के रास्ते में  जो अड़चने पैदा हो रही हैं उससे तथा जो आपकी जड़े काटने पर तुला हुआ है उससे।

आशा करता हूँ आप किसी न किसी माध्यम से अपने बड़े और वैभवशाली पुत्रों को सूचित करेंगी जो आपको बचाने के नाम पर सिर्फ उत्सव मनाते हैं और नाश्ता के  प्लेट में मिला एक समोसा और दो छोटा-छोटा कालाजामुन को तीन फांक वाला काँटा के चमच से तोड़-तोड़ के खाते हैं और डकार लेकर आपको उसी में उड़ा देते हैं।

जो आपके लिए कुछ करने हेतु ही विभागों में पदासीन हैं उन्हें चाहिए कि वे आपके स्तम्भों को मजबूत करें।जिनकी आप मातृ भाषा हैं उनका ख्याल रखें और कम से कम ऐसी स्थिति प्रदान करें समाज में कि न तो हिंदी के ऊपर कोई दूसरी भाषा को थोपे और न ही दूसरी भाषा पर हिंदी को थोपा जाए।अंग्रेजी आती है तभी आप इलीट हैं या नौकरी कर सकने में सक्षम हैं वाली मानसिकता सिर्फ हिंदी को ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के लिए भी हानिकारक हैं।

अगर ऐसा ही है कि अंग्रेजी जानने पर ही लोगों को एक रास्ता मिलेगा तब साफ साफ आपके बड़े पुत्रों को चाहिए कि वे सबको अंग्रेजी सीखाने की व्यवस्था कर दें और हिंदी को बचाना है बचाना है के भ्रम में लोगों को डालकर न रखें।आपके बड़े पुत्रों का यही आदत है कि अंग्रेजी के खिलाफ मुहिम छिड़वाते हैं और उसके पीछे अपना स्वार्थ-सिद्धि करते हैं।

आपका ग़लत हिंदी लिखने वाला पुत्र

क ख ग घ ङ



Friday, 1 May 2020

मजदूर दिवस।




आज रचने वालों का और रचना में मदद करने वालों का दिन है।आज संसार जिस पहिया पर चलता है उनका दिन है।घर से लेकर स्वर्ग तक के निर्माताओं का दिन है।उन सबको नमन।उन सबके कार्यों को नमन।उनसब के आत्मसमान का सम्मान करना ही हमसब का कर्तव्य होना चाहिए।

उनके लिए सिर्फ घर में मत रोइये और फेसबुक पर ही मत चिलाइये।जहाँ उनके खिलाफ ग़लत होता दिखाई दे वहाँ बोलिये।खासकर के बाल मजदूर को मजदूरी करते हुए देखिए तो पुलिस को फोन कीजिये।100 नम्बर डायल करिये।ये हम और आप कर सकते हैं।छोटा भीम या शिनचैन नहीं आएगा ये सब रोकने।

लेबर डे के दिन मजदूरों के लिए सिर्फ हमलोग के दिल में लेबर पेन होने से काम नहीं बनेगा।ये सिर्फ घड़ियाली आँसू के अलावा कुछ नहीं हैं।सब कहीं न कहीं मजदूर ही तो हैं।किसी को उसके चॉइस के अनुसार मजदूरी का मौका मिलता है तो किसी को उसके मजबूरी में मजदूरी करना पड़ता है।जो अपने पसंद से मजदूरी करते हैं उनको मजदूर दिवस की बधाई और जिनके ऊपर उनकी मजदूरी को उनकी मजबूरी में लाद दिया गया है उनके इस हालत के खिलाफ बोलना होगा,खड़ा होना होगा हमको और आपको।सिर्फ कविता या पोस्ट लिखने से कुछ लाइक/कमेंट/शेयर के अलावा कुछ नहीं होगा।जय हो। #mayday #मजदूरदिवस

Friday, 14 February 2020

प्रेम पत्र भाग-५(पाँच)



हे मेरी फुलगोभिया!

चढ़ रहे सेलाइन में घुले हुए ऑक्सीजन के प्रत्येक अणुओं जितना प्यार भेज रहा हूँ और इस पत्र के माध्यम से यह अज़ान दे रहा हूँ कि आई लभ जु भेरी भेरी मच।

जय श्री राधे।तुम्हारा पुराना पत्र रामधनी काका से भी मिला था लेकिन उसका जवाब न दे सका इसलिए एक क्षमा-दान चाहता हूँ।उम्मीद है क्षमा-दान करने में कंजूसी नही करोगी और मेरी झोली क्षमा से भर दोगी।

इस बार तुम्हारे एक भ्राता श्री आदरणीय परम् प्रतापी गाजर सिंह ब्रो के माध्यम से तुम्हारे द्वारा लिखित तुम्हारा नवका पिरेम पत्र मिला।पत्र में अंकित तुम्हारे  प्रेम से लबालब एक-एक शब्दों ने तुम्हारे भाई की लाठियों से मृत पड़ी मेरी सभी सेलों को जीवित कर दिया।पुराने पत्र में तुम्हारी बेल्ट से  हुई कुटाई से उत्पन्न तुम्हारे दर्द और कष्ट के बारे में पता चला था।दुःख हुआ जानकर कि तुम्हारी कुटाई बहुत हुई मेरे कारण,माफ़ करना।आशा करता हूँ अबतक तुम ठीक होकर फिर से फूलगोभी की तरह खिल गई होगी।

इस बार मिले पत्र को पढ़कर मुझे बहुत ही गर्व हो रहा है कि तुम्हारे जैसी मुझे प्रेमिका मिली है।तुम जिस तरह से मुझपर भरोसा करती हो उसे देखकर लगता है कि मैं तुम्हारे प्यार रूपी आम चुनाव में मोदी जी की तरह प्रचंड बहुत से विजयी प्राप्त अवश्य करूँगा।चाहे मेरे खिलाफ कितने ही विरोध-प्रदर्शन क्यों न हो जाये!इधर से मैं भी  इस पिरेम पत्र के माध्यम से अपने शब्दों में लपेट के प्रेम-औषधियाँ भेज रहा हू
हूँ,जो तुम्हें और बल और हमारे पिरेम को स्थायित्व प्रदान करने हेतु तुम्हारी कोशिशों को  सम्बल प्रदान करेगा।

एक बात कहना चाहूँगा कि तुम्हारे पिता जी हैं बहुत निर्दयी किस्म के।जान को जान नहीं बुझते और न ही शरीर को शरीर।उधर तुमको बेल्ट से पिटे और इधर तुम्हारे भाइयों को कहरक मुझे लाठियों से कुटवा दिए।देह तहस-नहस हो गया है लेकिन तुम्हारे प्रेम पर भरोसा है और उम्मीद करते हैं कि तुमने जो पिरेम पत्र के माध्यम से प्रेम और स्नेह को शब्दों में गूथ कर भेजा है उससे मेरे टूटी हुई हड्डियों का वेल्डिंग धीरे-धिरे हो जाएगा।

तुम्हारे गाँव का एक लड़का जिसका नाम मटर है वो कह रहा था कि तुमने जो गोबर का गोइठा(उपले) सूखने के लिए अपने घर के पीछे वाली गली में  रखी थी वो किसी ने चुरा लिया।सुनकर दुख हुआ।

आजकल रात में मेरी नींद बिस्तर से बिछड़ के तेरी यादों के गाँव में छउर पर बैठा तेरी सपनों में खोया रहता है।वैलेंटाइन सप्ताह चल रहा था तो हमको पिछले वर्ष वाला वैलेंटाइन के दिन वाला बात याद आ गया कि कैसे हमको और तुमको बजरंग दल वालों में दौड़ा-दौड़ा के कुटा था।

तुम्हारे भाइयों के द्वारा की गई पिटाई के कारण इसबार हमलोग वैलेंटाइन दिवस साथ में नहीं मना पाएँगे।इसका मुझे खेद है।जल्दी मिलूँगा और वो भी तुम्हारे बाबू जी से किये वादे के साथ।

तुम्हारे भाई के द्वारा बरसाई गई लाठियों की हर बौछार में मैन तुम्हें ही याद किया है।इस पर दो लाइन लिख रहा हूँ कि-
"पिटाई से टूट कर हो चुका हूँ चूर,फिर भी तुमसे प्यार करता हूँ भरपूर।"

तुमसे हुमच के प्यार करने वाला और दिल के बहतरों धड़कनों पर तेरा नाम लिख चुका,तुम्हारा
गुलकंद
गाँव-राईगंज, जिला-कटहलपुर
चुकंदर प्रदेश



फ़ोटो-गूगल



Thursday, 16 January 2020

डायन दहेज


चंदर बड़ी तेजी से दौड़ता हुआ कोतवाली थाने की ओर जा रहा था तभी सहसा पिछे से आवाज आई-“अरे ओ चन्दर किधर दौड़े जा रहा है राजधानी जैसा बेधड़क” चंदर चलते हुए पिछे मुड़कर देखा तो गाजीपुर वाली चाची झोला लिये खड़ी थी;जो देखने में तो बलवान और कठोर लगती थी पर थीं मन की बड़ी भोली और दिल की मुलायम।
वहीं चंदर के पड़ोसी शर्मा जी के मकान में किराये पर रहती थी,उनके पति श्री श्यामलाल महतो अरब में एक तेल के कुएँ में मैनेजर थे और सांल में सिर्फ दीवाली पर ही आते थे।उनका बेटा सूरज और चन्दर दोनों का जन्म एक ही साथ हुआ था लेकिन 2 साल के उम्र में हीं सूरज को हैपेटाइटिस हो जाने के कारण वह दुनिया से कूच कर गया। दम्पत्ति पर मानो दुःख का सुनामी आ गया औऱ तब से वे दोनों चन्द्र में हीं अपने सूरज को देखते हैं और उस कारण से चन्दर उनका अज़ीज हो गया है। गाज़ीपुर वाली तो उसे अपना सारा सम्पति भी देने की बात करती हैं पर श्यामलाल हीं चुप लगा देता है ,लेकिन जब भी वह अरब से आते हैं चंदर का बोल बाला हो जाता ,उसके लिए ढेर सारे खिलौने और न जाने क्या-क्या ले आते हैं।
गाज़ीपुर वाली ने चंदर की ओर बढ़ते हुए उससे पूछा-” अरे ओ चनर कहाँ बदहवास भागे जा रहा है”।
‘चाची ,माँ और बाउजी कोतवाली गये हैं,थाने से तिवारी चाचा का फोन आया था।उनसे बात करने के बाद बाउजी ने माँ से कहा-“छोड़ेंगे नहीं!उस ब्रिजनारायन और उसके बेटे को,20वर्षा करवायेंगे, जल्दी कोतवाली चलो,तिवारी का फोन आया है,थाने बुला रहा है” और वे दोनों दौड़ पड़े ,मुझेसे बिना कुछ कहे ।
चांदनी;चन्दर की बड़ी बहन,जो कि उससे 14 साल बड़ी थी और चन्दर को अपने प्राणों से भी ज्यादा प्रेम करती थी। रूप,गुण और संस्कार तीनों उसमें प्रचुर मात्रा में भरे पड़े थे।संस्कार और शालीनता ऐसी की साक्षात सीता मैया लगती थी।गुण उसके ऐसे प्रभावी थे कि अगर किसी झोपड़ी वाले घर की भी बहु बने तो उसे राजमहलों जैसा बना दे।
अभी कुछ 1-2 साल पहले हीं चन्दर के बाउजी सुदर्शन बाबू ने बड़ी धूम-धाम से उसका ब्याह चंदौली के ब्रिजनारायन सिंह के बेटे कैलाश सिंह के साथ सम्पन्न करवाया था ।एक रति भी कोई कसर न छोड़ी थी उसके दान-दहेज में, हाँथ खोलकर सर्वश्व लुटा दिया था,चन्दर की माँ नाराज भी होती थी पर ओ कहते ‘एकही तो बेटी है,उसका भी तो बराबर का हक है’ इतना कहते-कहते उनके आँखों में पुत्री प्रेम छलक उठता था,परन्तु निर्मम और लोभी उसके ससुराल वाले उसके साथ में बहुत हीं नीच व्यवहार करते थे और आये दिन पैसों के लिए उसे और सुदर्शन बाबू को जलील करते रहते थे।
‘गाज़ीपुर वाली ने आशंकित होते हुए चन्दर से पूछा-तो तू क्यों जा रहा है?
चन्दर ने हाँफते हुए जवाब दिया-
‘ओ मुझे बिना कुछ कहे अचानक रोते हुए चले गये और शाम हो चुकी है पर दोपहर में गई-गई बिजली ज अभी तक नही आई है सो चारो ओर अंधेरा है जीस कारण मुझे घर में अकेले डर लगने लगा तो मैं भी जा रहा हूँ” इतना कहते-कहते चन्दर की आँखे डबडबा जाती हैं।
‘तू अब रुक दौड़ मत,मैं भी चलती हूँ तेरे साथ’ अपने आँचल से चनर का पसीना पोछते हुये और प्रेम की चासनी में डूबे ममता भरी दुलार की दृष्टि चन्दर पर फेरते हुए गजीपपुर वाली चन्दर से बोली।
पता नहीं क्यों गाज़ीपुर वाली को कुछ अनहोनी की आशंका हो रही थी।उनके हृदय में ऐसा लग रहा था जैसे अचानक से दुखों और वेदनाओं का भूचाल सा आ गया हो और अपने पूरे बल से उनके हृदय को चीर कर बाहर निकल जाना चाहता हो।
गाजीपुर वाली सरपट तेज कदमों से चन्दर को लिए कोतवाली की ओर बढ़ रही थी और मन ही मन सोच रही थी कि-जब चन्दर के लिए सेवई लेकर उसके घर गई थी तो कल ही तो टेलीफोन से बात हुई है चांदनी से,अब आज ऐसा अनर्थ क्या हो गया जो बात पुलिस तक पहुँच गई।गाजीपुर वाली को उसके पति पर शक हुआ; देखने मे तो कैलाश भद्र लगता था पर जल्लाद की तरह चांदनी को पिटता था और चांदनी को अपने मायके से 10 लाख रुपये मांगने को कहता क्योंकि उसे एक शराब का ठेका खोलना था बनारस में,पर चांदनी अपने पिता की हालत जानती थी,उसे पता था कि उसके पिता के पास 10 लाख तो क्या 10 हजार नही होंगे,”सारे रुपये तो उसकी शादी में खर्च हो गए पूरे 5 लाख गिनवाए थे उसके ससुर ने और उपरौटा खर्च अलग,ओ सम्पति के नाम पर सिविल लाइन्स में 1 कट्ठा जमीन थी ,कितने सपने सजाए थे उसके पिता ने घर बनाने के लिए कि बनारस में अपना घर होगा पर इस दाढ़ीजार ने उसको भी अपने नाम रजिस्ट्री करवा लिया शादी में, वरना बारात लिए लौट रहा था, और अब फिर आये दिन पैसे के लिए प्रताड़ित करता है “इन सब बातों को गाजीपुर वाली से बताते हुए चांदनी की आँखों में आशुओं का सैलाब उमड़ पडा ,गाला रुन्ध हो गया और आँखों से मोतियों की धारा फुट पड़ी।
और इधर जबसे चांदनी माँ बनी है और घर मे बेटी ने जन्म लिया है,जिसका नाम चन्दर ने बड़े प्यार से लक्ष्मी रखा है,तबसे उन जल्लादों ने उसे कष्ट देने में कोई कसर नही छोड़ी है रोज पिटते कभी चिमटे से मुँह जला देते तो कभी शरीर पर गर्म पानी फेंक देते।
दरोगा तिवारी और सुदर्शन बाबू दोनों सहपाठी थे,तिवारी जी लम्बे-चौड़े छः फुटिया जवान हो गए थे दसवीं में ही और उसी समय यूपी पुलिस में दरोगा की बहाली निकली हुई थी तो वे बन गए दरोगा और बेचारे चन्दर के बाउजी पहुँच गए कमिसनर ऑफीस में क्लर्क बन कर।दोनों परम् मित्र होने के कारण तिवारी जी चन्दर और चांदनी को बड़े अच्छे से जानते थेऔर अभी उनकी पोस्टिंग बनारस में ही कुछ पहले हो गई थी।
‌इधर रोते-पीटते जब सुदर्शन बाबू और चन्द्र की माँ थाने पहुँचे तो तिवारी जी ने दोनों को ढांढस दिलाते हुए एक बगल मेज पर बैठा दिया और लगे बताने कि-आज जब मैं कुछ कार्यलय के काम से चंदौली से लौट रहा था तो जैसे ही बबूलों वाले जंगल के पास पहुँचा तो देखा कि चरवाहों का झुंड खड़ा है और भयाक्रांत स्वर में शोर मचाये हुए है।मैंने भीड़ देखर गाड़ी रुकवाई तो देखा कि आग में बुरी तरह से झुलसा हुआ एक युवती का शरीर पड़ा हुआ है,जब उसकी नब्ज़ टटोलने के लिए हाँथ उठाया तो अचानक से उसपे गुदवाए नाम पर मेरी नजर पड़ी, जिसपर लिखा था “चन्दर”;उसे देख मुझे पहचानते देर न लगी कि यह चांदनी ही है, देखा तो सांस चल रही थी,यथा सीघ्र उसे सुंदरलाल अस्पताल में भर्ती कराया पर…पर..”-तिवारी जी गला भर्रा गया और आँखों से भावनाओं की अविरल धारा फुट पड़ी।
‌तिवारी जी ने हाँथ जोड़ते हुए,काँपते स्वर में और भर्राये गले से कहा-“मुझे माफ़ करना सुदर्शन, मैं अपनी चांदनी बिटिया को बचा न सका”।
‌चन्दर के माता-पिता को ऐसा लग रहा था कि मानो वे एक घुप अंधकारमय सुरंग में एक छोटी सी ,प्यारी सी गुड़िया,वही हँसती-खिलखिलाती चांदनी जो अपने नन्हे पाँव के पायल की झंकार से उस अंधकार की चिरमयी शांति को भंग किये हुए दौड़े चली जा रही हो और ये दोनों पति-पत्नी उसके पीछे-पीछे भागे जा रहे हैं,ताकि कहीं वो गिर न जाये,उसे कही चोट न आ जाये,कही उनकी ये गुड़िया उनसे दूर न चली जाए!!

थाने में चिरस्थाई सन्नाटा कायम था कि तबतक गाजीपुर वाली चन्दर को लिए थाने पहुँच गई,उन्हें देखते ही चन्दर की माँ उनसे लिपट गई,और गाजीपुर वाली के लाख पूछने पर भी कुछ न बोलती बस रोये जा रही थी….
“आखिर इस “डायन दहेज” ने मेरी चंदनिया को निगल ही लिया!!अब लक्ष्मीया का क्या होगा!!….इतना कहते हुए चन्दर की माँ वहीं थाने में पछाड़ खाकर गीर पड़ी।
~मारुत नन्दन शरण
दिनांक-:30 सितंबर 2018


Photo-: google


प्रेम पत्र भाग-४



आदरणीय गुलकंद
इस ख़त के माध्यम से अपनी डूबती प्यार रूपी अर्थ व्यवस्था को बचाने के लिए अपने दिल रूपी रिज़र्व बैंक से निकालकर आपातकालीन परिस्थितियों में प्रयोग होने वाले धन रूपी प्यार को प्रेषित कर रही हूँ।

हम तो तुम्हारी याद में सुख के भिंडी जइसन दुबरा गए हैं लेकिन बधार वाले बरहम बाबा से इहे मनीता मांगते रहते हैं कि तुम जहाँ भी रहो तन्दरुस्त रहो और तरबूजा अइसन मोटा जाओ।आशा करते हैं जहाँ भी। होगे लहरिया लूट रहे होगे।

पिछली दफा जब तुमको हम पिरेम पत्र लिखे थे तो बाबूजी के डर के कारण हम तुमको पिरेम पत्र लिखकर हम अपने पास भेजने से मना किये थे, किन्तु मिलते रहने के लिये तो बोले थे न?लेकिन तुम इतने दिन से ऐसे गायब हो जैसे आम आदमी की थाली से प्याज गायब हो गया है, अर्थव्यवस्था का व्यवस्था गायब हो गया है, ऋषभ पंत के बल्लेबाजी का फॉर्म गायब हो गया है।मुझे तो डर है कि कहीं आप स्वामी नित्यानंद के द्वारा निर्मित उनके निजी देश कैलाशा में तो नहीं जाकर बस गए या कहीं कोई बैंक में धन का फ्रॉड करके देश छोड़कर तो नहीं भाग गए?लेकिन मुझे पता है कि आपका कोई जान-पहचान का सरकारी तंत्र में नहीं है तो अगर आप कोई इस तरह का फ्रॉड करते भी हैं तो न तो आप देश छोड़कर भाग सकते हैं और न हीं कोई नए देश के निर्माण का फॉर्म ही संयुक्त राष्ट्र में डाल सकते हैं।

तुम्ही कहते थे कि हर पंद्रह दिनों पर खत लिखता रहूँगा।चाहे चांद पर विक्रम लैंडर जैसा लापता ही क्यों न हो जाऊं तुम्हे मेरा पत्र रूपी सिग्नल मिलता रहेगा।लेकिन तुम जिस तरीके से हम से मुँह फेर लिए हो  उससे तो यही लगता है कि तुमने हमारे प्यार के पवित्र संविधान को ठीक उसी प्रकार तोड़ दिया है जैसे आदरणीय पंत प्रधान हमारे देश के संविधान के साथ कर रहे हैं।

तुम्हें तो पता है कि इस जालिम जमाने में औरतें कितनी आज़ादी से रहती हैं।फिर भी,तुम्हें यह पत्र लिख रही हूँ और बगल के खेत वाले गाजर एक भाई गाजर सिंह ब्रो के द्वारा भिजवा भी रही हूँ और अगर अभी भी तुम हमारे प्रेम में हो और हमको अपनी फगुनिया मानते हो तो तुमको हमर किरिया है कि तुम अगले सोमवार को  CAA के खिलाफ़ प्रोटेस्ट में आना वही पर अपने संविधान के लिए लड़ते हुए हम मिल भी लेंगे।

तुमने हमारे जीवन में अच्छे दिन लाने का वायदा किया था,इसलिए हीं मैंने तुम्हें अपने दिल रूपी राष्ट्र पर तमाम अपने परिवार रूपी एन्टी नेशनलस के विरुद्ध जाकर तुम्हें अपने दिल पर बहुमत से सरकार बनाने का मौका दिया लेकिन तुम तो भारतीय नेताओं जैसे निकले अपने पटाने के मैनिफेस्टो दिखाकर निभाने के वक्त मुकर गए।लेकिन फिर भी मैं भारतीय मूर्ख जनता की तरह तुम्हें दुबारा अपने दिल की सत्ता में बहुतम में लाने के लिए प्रयास करूंगी क्योंकि मुझे मेरे अच्छे दिन चाहिए और हाँ तुम्हारा प्यार रूपी पंद्रह लाख भी।

अब तो पूस का भी महीना बीतने को आ गया है।कुहासा और धुँध का रूप धर के श्री मेघ राज बादल जी भी अपनी प्रेमिका राजकुमारी पृथ्वी से मिलने इस भूमण्डल पर आ पहुँचे हैं,किंतु तुम पता नहीं कहाँ इस तरह गायब हो गए हो जैसे गदहे के माथे से सिंघ गायब हो गया है।

इतने दिन से जो तुम भारत में आने वाले अच्छे दिन की तरह लापता हो तो इस लापता-वास में तुम्हारी प्रेम और एक लाख रुपया लेकर लौटने की ही आस है जो उस दिए कि भाँति मुझे लौ और हिम्मत प्रदान कर रही है जो राजा के महल में जल रही थी और एक गरीब आदमी धन के लिए उस दीपक की लौ को देखते हुए सम्पूर्ण रात यमुना के ठंडे जल में खड़े होकर रात गुजार दिया था।

आशा करती हूँ कि तुम जल्दी हीं लौटकर हमारे घर हमारा हाथ मांगने आओगे।जिस तरह सभी भारतीय बेसब्री से अच्छे दिन आने का और अर्थव्यवस्था के दुरुस्त होने के इन्तेजार में हैं, मैं भी उतनी हीं बेसब्री से तुम्हारा इन्तेजार कर रही हूँ।जल्दी आना।

तुमसे मिलने की व्यथा और तेरे आने के इन्तेजार में पौने तीन किलो वजन कम कर चुकी योर बिलभड
फुलगोभिया
ग्राम-लाठीपुर, जिला-संग्रामगंज
चुकंदर प्रदेश


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परेशानात्मा

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