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Sunday 8 January 2023

परेशानात्मा

  



कुछ लोग निराशावाद के प्रति इतनी तन्मयता से आशावादी हो जाते हैं कि उन्हें हर एक चीज से परेशानी होती है और  उन्हें ईश्वर रचित या मानव निर्मित हर चीज परेशान करते रहती है।

उक्त प्रकार के मानवों की समस्या चाहे जो भी हो, लेकिन उनका एक ही कार्य होता है और वो है परेशान होना। चाहे दुःख हो या सुख, जीत हो या हार, अंधकार हो प्रकाश, उन्नति हो या दुर्गती, उत्कर्ष हो या अपकर्ष; मतलब जीवन के गुजरते हर पल में उन्हें सांस लेने से भी अधिक आवश्यक यह होता है कि वो परेशान हों!

ठीक उपर्युक्त वर्णित व्यक्ति जैसे हीं अपने खोपड़ी पर सारे निराशावाद के गुणों के लोड से ओवरलोडेड एक परेशान आत्मा हैं हमारे गाँव के; उनका शुभ नाम सुखलाल है। हमारे गाँव के भूगोल के अनुसार पहले उनका घर गाँव के सबसे अंत में था और उन्हें इस बात से भी खासा परेशानी हुआ करती थी। उनको लगता था कि जो लोग गाँव के आगे रहते हैं वो कहीं से आने के बाद घर जल्दी पहुँच जाते हैं और उन्हें उनके बनिस्पत कुछ ज्यादा चलना पड़ता है, मतलब उन्हें अपने पग से कुछ दूर चलने से भी परेशानी थी। और उन्हें ऐसा लगता था कि दीवाली के दिन जब लक्ष्मी माता गाँव-भ्रमण पर आती हैं तो वह गाँव के आगे वाले मकानों में पहले पहुँच जाती हैं और सब धन उन्हीं के यहां उड़ेल देती हैं। उनके जेहन पर निराशा इस कदर हावी था कि वे भोजन करते-करते इस बात से परेशान हो जाते थे कि उनके थाल का भोजन उनके खाने से समाप्त हो जाएगा और वे फिर उस थाल को अपने सामने से हटा देते थे।

वे दो भाई हैं। सुखलाल खुद खेती का काम देखते हैं और उनका छोटा भाई कुछ दिन तक पढ़ने के पश्चात अपने पढ़ाई-लिखाई को यूरिया खाद के बोरे से बने झोले में कैद कर के रख दिया था और अब वह गाँव का युवा नेता बन गया है। जो अपने जन्मदिवस पर अपने ही खर्चे से अपनी बड़ी सी तस्वीर गाँव के चौक पर लगाकर स्वयं को स्वयं के द्वारा बधाई संदेश दिया करता है। अब आप सोचेंगे कि इन सब काम के लिए उसके पास पैसे कहाँ से आते हैं; तो मैं बता दूं कि भारत के प्रत्येक नेता की तरह उसने भी एक नया काम शुरू किया है- परोपकार करने का। वैसे बता दुँ कि वो चोरी करने को परोपकार कहता था और इस मामले में उसकी राय निम्नवत है-
"जब किसी के पास ज्यादा धन हो जाता है तो वह एक रोग से ग्रस्त हो जाता है जिसे चिंता कहते हैं, तो मैं उन व्यक्तियों के धन को चुरा कर उनपर उपकार करता हूँ और उन्हें धन के बोझ से मुक्त करता हूँ और ऐसा सुनिश्चित करता हूँ कि अब वो धन की सुरक्षा की चिंता के बजाय धन के चोरी होने की चिंता में परम सत्य मृत्यु को प्राप्त करें"। अपने इन्हीं परोपकारी कार्यों के चक्कर में एक बार जेल की भी हवा खा आया है। वो कहता है कि कितने लोग यहाँ बाहर देश भर में भूखे मर रहे हैं तो बाहर भूखे मरने से कही अच्छा है कि कम से कम जेल की हवा ही खाई जाए।

खैर माफ़ी चाहेंगे मैं भी कहाँ परेशानी से लबालब सुखलाल की गाथा गाते-गाते उसके भाई की परोपकार की कहानियों को सुना के आपको परेशान कर रहा हूँ। सच्च में परेशानी हर जगह है!

सुखलाल औऱ उनके पिता अपने छोटे बेटे की इन्हीं परोपकारी नीतियों की वजह से काफ़ी परेशान रहते हैं और उनलोगों का इसबार परेशान होना लाज़मी ही है। बेचारे सुखलाल परेशानी को इतनी देर सर पर बिठाए हैं कि उनके सर के बाल भी परेशान होकर शहीद हो गए और बाल शहीद होते-होते सुखलाल को गंजेपन की परेशानी थोपते गए। अब सुखलाल अपने परेशानियों के जखीरे में एक और अनमोल परेशानी को जोड़ते हुए अब अपने बालों को लेकर भी परेशान रहने लगे।अब उन्हें दूसरों के माथे पर लहलाती हुई बाल से भी परेशानी होने लगी। जो मिलता उसी से कहते "सर पर बाल न होना भी उत्तम हीं है कंघी, तेल, शैम्पू और बाल कटवाने के खर्चे से छुटकारा मिलता है। देखो- "उस सम्भुआ को, उसकी आधी कमाई तो सर के बाल की साज-सज्जा में ही उड़ जाती है"।उनकी परेशानियों की पराकाष्ठा इसी बात से समझिए कि अगर वो किसी के यहाँ आमंत्रण पाकर (खुद किसी को नहीं आमंत्रित करते, उन्हें चीड़ था कि उनके धन को किसी दूसरे के भोजन पर व्यय करना पड़ता) उसके यहाँ भोजन करने गए हैं तो उन्हें वहाँ पर परोसे जा रहे चावल के माप से (चावल ज्यादा मोटा है या पतला है), रोटी के परिमाप से, सब्जी में आलू के टुकड़े का आकार सही है कि नहीं आदि ऐसी तमाम बेकार चीजें उन्हें उतना ही परेशान करती जितना विमुद्रिकरण ने भारतीय जनता को परेशान किया था।

सुखलाल और उनके पिता ने छोटे भाई को एक किराने की दुकान खोल दी और समयानुसार शादी के बोझ और पत्नी की नियमित फटकार से छोटू अपने परोपकारी कामों को छोड़कर अपने दुकान में रम गया और उसकी दुकान चल निकली।

अब सुखलाल को अपने भाई की तरक्की से भी परेशानी होने लगी। लोगो से कहते कि उनका छोटा भाई धोखेबाज है और ग्राहकों को ठग के अपना घर भर रहा है और वो खेतों में खेत आ रहे हैं फिर भी लक्ष्मी माता न जाने किन कारणों से उनसे रूठ गई हैं। खैर, दोनों में झगड़ा हुआ और दोनों आपस में बटवारा कर लिए। बँटवारे की भी बड़ी लम्बी कहानी है वो मैं नहीं बताउंगा क्योंकि उसे सुन आप परेशान हो जाएंगे और आपको परेशान करने का मेरा कोई इरादा नहीं है।

बँटवारे में सुखलाल को रहने के लिए गाँव के आगे वाली जमीन मिली उन्होंने घर बनाया और फिर परिवार समेत रहने लगे। गाँव के पीछे में घर होने से जो परेशनी उन्हें हो रही थी उससे छुटकारा मिलने के बाद कुछ दिन तो बहुत खुश रहे।कभी-कभी वो इतने खुश होते कि अपने भाई की बुराई रोड पर जाने वाले हर व्यक्ति से करते और उन्हें बताते की कैसे उनके भाई ने उनसे बेईमानी की और वो कितने परेशान रहे।

वे परेशानी को जीते हैं उन्हें इस बात से भी परेशानी होती थी कि ठंड के मौसम में में ठंड क्यों पड़ रही है। भगवान ने अति कर रखा है। फिर गर्मी आती तो उन्हें गर्मी से भी समान रूप से शिकायत रहती की सूर्य भगवान अति कर रहे हैं और जब बरसात आती तो उसे बरसात से भी परेशानी होती और वो कहता इंद्र भगवान इतना बरस क्यों रहे हैं? उसे लगता मानो ईश्वर ने सारी ठंड, सूर्य देव ने अपने प्रकाश का सारा तेज और इंद्र देव ने पानी की सारी टँकी उसके घर के लिए हीं रखी हो और यह कोई दैविक साजिश के तहत सभी देव उसके ऊपर देश-दुनिया के लोगों से ज्यादा ठंड-गर्मी-बरसात की मार उसे दे रहे हैं।

समय बीतते गया लेकिन परेशान होने की उनकी आदत समय के साथ और मजबूत होती रही। अब उनका मकान गाँव के ठीक शुरुआत में था और उनको इस बात से भी बड़ी घोर परेशानी होने लगी थी। उन्हें लगता था कि गाँव में आने वाला हर एक व्यक्ति उनकी मकान की ओर देखता है और उसे नज़र लगाता है। उनके मकान के की छत के छजे एक कोने से जंग खाने से टूट रहे थे और वो इसका दोष उन्हीं नजरबटु को देते थे जो आते-जाते उनकी मकान की ओर बुरी नज़र से देखते थे। खैर, टूटते छत के लाइलाज बीमारी का इलाज़ उन्होंने नींबू-मिर्ची का माला और दरवाजे पर एक टूटे हुए काले जूते को टांग कर कर दिया।

उनको समाज-सरकार-मानव-सन्त-जानवर आदि-आदि से सबसे से कुछ न कुछ समस्याएँ रहती हीं रहती हैं और उन समस्यायों का पाठ व उवाच रोड पर जाते हुए लगभग सभी राहगीरों से कर ही देते हैं, क्योंकि जैसा कि अक्सर होता है रोड के किनारे रहने वाले लोग अपने बगल से गुजरती हुई सड़क पर अपना आधा अधिपत्य जमा लेते हैं ठीक उसी प्रकार सुखलाल ने भी अपने बगल के सड़क पर आधा से अधिक अधिपत्य अपने जानवरों को बांध कर, अपने घर के कूड़े फेंककर तथा सुबह-शाम बैठक लगा कर कर लिया था।प्रायः एक कच्छा-बनियान पहने, माथे पर चितकबरे अंगोछे से मुरेठा बांधे तथा अपने सुविधानुसार अपने छोटे बेटे को कभी कांधे तो कभी गोद पर बिठाए आते-जाते लोगों की परेशानियों को न समझते हुए अपनी परेशानियों को सुनाया करते हैं।

जब उनके बगल वाली सड़क पक्की नहीं थी उससे भी उन्हें परेशानी थी और अब जब पक्की हो गई है उससे भी उन्हें परेशानी है। वे कहते हैं कि पक्की सड़को के कारण ही धरती के अंदर का जल सूखता जा रहा है। सड़क पक्की होने के कारण वर्षाजल भूमकगत नहीं हो पाता है और भूजल का स्तर कम होता जा रहा है।
जब उनके बच्चे बड़े होने लगे तो उन्हें इस बात से परेशानी होने लगी कि उनके बच्चे की उंच्चाई उनके पड़ोसी के बच्चे से एक इंच कम क्यों है! जब कोई वे कपड़े खरीद लाते और वह कपड़ा जल्दी फट जाता तो कहते- जल्दी फट गई नक़ली होगी और जब जल्दी नहीं फटता तो कहते आखिर ये फट क्यों नहीं रहा!

खैर, उन्हें नई जगह पर रहते करीब दस वर्ष बीत गए और उनके छज्जे नींबू-मिर्च और फटे काले जूते के इलाज के वावजूद जंग खा कर एक दिन पूरी तरह गिर पड़ा, जिसका सारा श्रेय अपने पड़ोसी की पत्नी पर लगाते हुए उन्होंने चिंता जताई कि-"सब उनके तथाकथिक प्रगति से जलते हैं और इसी क्रम में जलते हुए लोगो ने उनके घर को नज़र लगाकर उनके छत के छजे को गिरा दिया, और न जाने आगे क्या कर दे वो कलमुँही इसलिए अब वो यहाँ नहीं रहेंगे, गांव के बीचों बीच घर बनाकर रहेंगे ताकि घर किसी की गलत निगाहों से बचा रहे।"

सुखराम अब गांव के बीच में घर बनाकर रहते हैं। इसी दशहरे की छूटी में जब मैं उनकी बगल की गली से गुजर रहा था तो देखा कि वो अपनी पत्नी को सभी परेशानियों का जड़ बतातकर उससे लड़ रहे थे। मैं देख उनसे पूछ बैठा और सब कैसे हो दादा कोई परेशानी तो नहीं?
खड़े होकर अपनी लूँगी कसते हुए बोले क्या बताऊँ जब से इधर आया हूँ गाँव के बीच में दम से घुटा जा रहा है। ठंड में धूप के लिए तरस जाता हूँ, गर्मी में ठंडी हवा के लिए और बरसात में इतनी कीचड़ हो जाते हैं कि निकलना दूभर हो जाता है।बहुत परेशानी है। कोई सुनने वाला ही नहीं है। भगवान की भक्ति करके भी परेशान हूँ! अब वो भी कुछ नही सुनते!भगवान का यूँ नज़रंदाज़ करना भी अब परेशान करने लगा है।

मैंने मन ही मन कहा- आप किसी वस्तु या व्यक्ति से नहीं, आप परेशान होते-होते परेशान हो गए हैं!

नोट-हरिशंकर परसाई की एक निबन्ध से प्रेरित।

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परेशानात्मा

   कुछ लोग निराशावाद के प्रति इतनी तन्मयता से आशावादी हो जाते हैं कि उन्हें हर एक चीज से परेशानी होती है और  उन्हें ईश्वर रचित या मानव निर्म...