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Saturday, 4 June 2022

एकला चलो रे!




गुरुदेव टैगोर यह वाक्य बोले थे। ये गाना हमें ऊर्जा से भरता है। इसमें कहा गया है कि किसी के उपर निर्भर क्यों रहना हमें अपने पथ पर अकेले ही चलना चाहिए। लेकिन इसके पीछे की कहानी कुछ और होगी...क्योंकि अकेला चलना तो बेकार और सुस्त सा होता है फिर गुरुदेव ने लोगों के इतने सगे–संबंधियों, नाते–रिश्तेदार, इष्ट–मित्रों आदि के रहते अकेले चलने की प्रेरणा क्यों दे रहे हैं!? 

अब इसका कारण मुझे पता चल गया है। हमारे एक गुरुजी हैं उन्होंने ने हमें सिखाया है कि आदमी जन्म से ही धूर्त और लालची होता है। सब अपने मौका का इन्तेजार करते हैं। हम-आप-सब बस इस बात का इन्तेजार करते हैं कि कब हमें भी किसी को चहेटने का मौका मिले और हम उसे चहेट लें।जबतक नहीं मिलता है मौका तबतक ईमानदार बने रहते हैं और मिलते ही धर के रगड़ देते हैं। कोई–कोई तो आजीवन ईमानदार रहता है, क्योंकि उसको आजीवन कुछ लूटने को नहीं मिला होता है। वो प्रत्येक दिन सुबह से शाम तक बेईमानों को गरिया रहा होता है। दरअसल वो बेइमानों को नहीं गरियाता है, अपने भाग्य को रपेट–रपेट के गरियाते रहता है कि आखिर उसे क्यों न मौका मिला किसी आदमी को ठगने का, किसी से दुर्व्यवहार करने का, किसी को नीचा दिखाने का आदि-आदि। खैर, माफी चाहेंगे रास्ता भटक गए थे। ये भी है कुछ बिरले होते हैं जो सच में अच्छे होते हैं। अच्छा अब अपने शोध-पत्र की ओर लौटते हैं। 

गुरुदेव ने एकला चलो का नारा इसलिए दिया होगा क्योंकि वो अपने साथ चलने वालों से परेशान हो गए होंगे। वे ठहरे इतने बड़े साधु आदमी। रोज कोई न कोई आकर कुछ न कुछ मांगता होगा। वो जरूरतमंदों के मांगने से परेशान नहीं हुए होंगे वे परेशान हुए होंगे पुष्ट, सक्षम अजर बलशालियों के मांगने की कला देखकर। इस प्रजाति के लोग भीतर से बहुत चालाक होता है और इनकी शिराओं में रक्त के स्थान पर कृतघ्नता का संचार होते रहता है। उन्हें कुछ लोग ऐसे मिले होंगे जो उनकी अच्छाई को उनकी कमजोरी समझकर उन्हें सताते होंगे और अपना रौब झाड़ते होंगे। उनकी नेकदिली को लोग मजबूरी समझते होंगे। और तब इन्हीं लोगों से तंग आकर उन्होंने कहा होगा कि एकला चलो रे। अकेले चलने में बहुत मजा है। हम भी अपने आस पास में देखें हैं।

 ऐसे माँगेन्द्र जी टाइप के लोगों की भरमार है। ये तमीज से मांगते है। और मांग पूर्ति के पश्चात दिखाते हैं आपको अपनी बदतमीजी। ये आपकी सीढ़ी पर सबसे पहले ऊपर चढ़ जाएँगे फिर ऊपर से आपको सीढ़ी झुकार पलटा देंगे। बदतमीजी की पराकाष्ठा तो तब होती है जब इन्हें पुनः ऊपर जाने की आवश्यकता आन पड़ती है तो ये फिर आपके पास आपकी सीढ़ी मांगने आएँगे और फिर अगर आप झुक के इनकी बात मान लेते हैं तो ये पुनः वही काम दुहराएँगे। ये सीरियल ऑफण्डर होते हैं। ये स्वार्थियों के स्वामी होते हैं। ये ऐसी रस्सी होते हैं जो जल चुके हैं लेकिन इनकी ऐंठन बरकार रहती है। इन्हें बस पहचानने की आवश्यकता है। पहचानिए और फुँक के उड़ा दीजिये। इनके दिखावटी साथ से बेहतर है, मिलों अकेले चलना और वर्षों एकांत में रहना। इससे ये साबित नहीं होता कि सभी एक ही थैले के टट्टू हैं।कुछ लोग अच्छे होते हैं और कुछ लोग सही में जरूरतमंद होते हैं। इनलोगों की सदैव मदद करें। किन्तु गुरुदेव का बात हमेशा याद रखें कि चाहे लाखों लोग आपके साथ चलने को परेशान हैं आपको चलना अकेले ही है। 


अंत में जो मैंने एकला चलो का अर्थ अपने लिए निकाला है वह यह है कि हमें 'क्या हार में क्या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं" वाली मानसिक स्थिति में अपने आप को रखना चाहिए। सुख का सृजन वहीं से होगा। हम जो सभी से उम्मीद लगाए रहते हैं और उस उम्मीद के पूर्ण होने पर दुःखी होते हैं उस उम्मीद से ही छुटकारा पाकर एकला चलना है।

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