Pages

Sunday 18 October 2020

दास का कैपिटल!


 

कि वे हमारे ही बीच के हैं; ऐसा वे हमें प्रत्येक पाँच वर्षों पर कहा करते हैं और इतनी तल्लीनता के साथ कहते हैं कि हम उनकी बात मान भी लेते हैं; बिना कुछ पूछे कि- आखिर आप हमारे बीच के कैसे हुए? हमारे बीच में तो इतना साफ सुथरा कपड़ा कोई नहीं पहनता!लेकिन हममें से कोई ऐसा नहीं पूछता।ऐसा नहीं है कि ऐसा पूछने की हममें से किसी को हिम्मत नहीं है, बल्कि हिम्मत तो हमारे अंदर ठूस-ठूस के भरा हुआ है।ठीक उसी प्रकार जैसे रमधरिया डीलर के गोदाम में ठूस-ठूस के कालाबाजारी वाले अनाज की बोरियाँ भरी हुई हैं।हम बस इसलिए उनकी बात मान लेते हैं कि आखिर इस फरेबी दुनिया में इतना बड़ा आदमी जब ऐसा कह रहा है कि हम आपके ही हैं और आपके बीच से ही हैं तो फिर मानने में हमारा क्या जाता है?एक वोट ही न!


इतने पर भी, जब कि हमारे चेहरे के नक्श से और थोथुने के लटकन  पर साफ दिख रहा होता है कि हमने उसकी 'हमारे ही बीच से' होने वाली बात को ठीक उसी प्रकार स्वीकार कर लिया है जैसे कि मोदी जी की नाली से गैस निकलने वाली बात पूरे भारतवर्ष ने मान ली है, किन्तु नेता-मन के चंचल स्वभाव होने के कारण वो एक और भारी-भरकम वक्तव्य अपने मुखारविंद से हमारे बाह्यकर्ण की भितियों तक निर्यातित करते हैं और बड़े ही मूर्ख बनाने वाले स्वर में कहते हैं- हम तो आपके दास हैं, सेवक हैं और जब हमारा जन्म हुआ था तब नर्स ने हमारे पिता जी के कान में लड़का हुआ है कहने के बजाय, यह कहा था कि अरे त्रिलोचनजी आपके घर में तो गरीबों का मसीहा हुआ है!


इतना सुनते ही हमारे उस भीड़ के आदरणीय सभासदों के पूर्वकाल से ही लटके हुए थोथुनों ने अपने लटकने का तरीका बदलकर ठीक उस प्रकार का कर लिया जैसा कि नाक में नेटा लटकाए हुए एक पाँच साल के बच्चे का बेतरतीब ढंग से नाड़ा लटका हुआ होता है।


खैर, हम विश्व के उस महान कौम के सदस्य हैं जिसे लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में "जनता" कहते हैं और इस कौम के सभी सदस्यों का एक नैसर्गिक गुण होता है, जिसमें वे नेताओं की बात बिना ज्यादा ऊर्जा-व्यय किये हुए मान लिया करते हैं।पशुओं के साथ-साथ कई नेताओं के पास भी चारा होता है जिसे वे खा सकते हैं किंतु जनता नामक कौम के जीवों के पास अपने नेताओं की बात मानने के सिवा कोई चारा नहीं होता है।अतः हमने उनकी दूसरी भी बात मान ली कि वे हम गरीबों के दास हैं!


ये जो नेता जी हैं जो की हमारे ही बीच के हैं वे इससाल सातवीं बार हमारे गाँव में अपने फ़्यूज बल्बों के झालर समान चुनावी वादों के साथ आये हैं और उस फ़्यूज बल्ब के झालर को एकबार पुनः हमारे वोट लेकर हमें बेचने वाले हैं।वे बहुत ही परम्परा-प्रेमी हैं और अपने पूर्वज नेताओं की भाँति ही वे परंपरागत रूप से सिर्फ चुनाव में ही नज़र आते हैं, ठीक वैसे ही जैसे भदोईया बेंग/मेढ़क भादो में टर्र-टर्राते हुए अपने शुभ दर्शन देता है और कुछ फतिंगों को अपना ग्रास बनाता है।नेताओं के लिए हम फतिंगों से कम नहीं हैं! ये नेता जी इन सातों बार के अपने अतिमहत्वपूर्ण चुनावी दौरा में कार्ल-मार्क्स, लोहिया के सिद्धांतों से लेकर जेपी से लेकर न जाने उन तमाम हस्तियों के नाम और सिद्धांतों के बारे में, हम जैसे कभी न किताबों के मुख देख सकने वाली अधिकतर जनता को बता दिया था कि वे महापुरुष जनता के हितार्थ बातें किया करते थे और चूँकि हमारे नेता जी भी उसी पथ पर चलते हैं तो वे भी जनता के हित के लिए ही काम किया करते हैं! लेकिन हे पाठक! उनमें और हमारे ही बीच से उठ खड़े हुए इस नेता जी में मात्र इतना फर्क था कि उन महापुरुषों ने बातों के अलावा गरीबों के हित में कुछ काम भी किया था, किंतु ये संसद से लेकर सड़क तक में सिर्फ गरीबों के हित की बातें किया करते हैं!इनके स्व-सिद्धांत "बातवाद" में इन्होंने कहा है कि जनता को अपने छुधापूर्ती हेतु काम करने से बचाने के लिए उनके पेट  को बातों से ही भर दिया जाना चाहिए ताकि सरकारी खजाने को सीधा स्विस बैंक में निर्यात कर दिया जा सके, क्योंकि भारत में लोगों के द्वारा भारतीय बैंकों को लोन के नामपर लूट लेने के मामले अधिक सामने आने लगे हैं।


नेताओं को पता होता है कि जनता के सब्र का बांध उनके द्वारा सरकारी पैसों से बनाये गए बांधों से मजबूत होता है और सरकारी बांधों को कुतरने वाले चूहे जनता के सब्र की बांध तक पहुँच नहीं सकेंगे।इसलिए वे जानते हैं कि कुछ भी जनोपयोगी कार्य न कर के भी मतोपयोगी भाषण जनता के बीच में परोसा जा सकता है, और अभी हमारे गाँव में हमारे ही बीच के तथा गरीबों के मसीहा नेता जी ठीक वैसा ही मतोपयोगी भाषण अपनी परम्परा के अनुसार हमें सुना रहे थे और हम भी परंपरागत अनसुने से होकर उनकी बातों को ठीक उसी प्रकार सुन रहे थे जैसे भौतिकी की कक्षा में शायर-हृदय के बालगण शिक्षक के द्वारा बताई जा रही आइंस्टीन के सिद्धांतों को सुनते हैं!


नेता जी का सातवीं बार गाँव में आगमन जिस दिन हुआ था उसी दिन शहर से अर्थशास्त्र में स्नातक कर के आये एक प्रचंड  बेरोजगार युवक गाँव में आया था।वह इस पारंपरिक नेता के गुण-दोष से भली-भाँति परिचित था।जैसे ही नेता जी ने मुँह और नाक को सम्पूर्ण कोण में एक साथ घुमाकर एकबार पुनः यह बोला कि- मैं तो गरीबो का मसीहा....।बात पूरी भी न हुई थी कि वो अर्थशास्त्री उठा, उसी समय मैं समझ गया कि अब इस नेता का ये अर्थशास्त्री आक अनर्थशास्त्री बना देगा।अर्थशास्त्री ने बड़े ही सरल व सहज बेइज्जती करने वाले स्वर में बोला- हे दास!जब तुम हमारे ही बीच के हो और हम जैसे गरीबों के दास भी कहते हो अपने आप को तब ये बताओ कि आखिर चुनाव के उपरांत तुम्हारा प्रदर्शन और जनदर्शन दोनों डेफिसिट में  क्यों रहता है?और ये बताओ कि हम गरीबों के घर की ओर लक्ष्मी माता कछुआ की गति से तथा आपके कोषागार में  खरहे की गति से क्यों पहुँचती हैं? हे मार्क्सवादी दास! आपका कैपिटल कोरोना और बेरोजगारों की संख्या की भाँति इतना फैल क्यों रहा है?


अचानक  हुए इस हमले में नेता जी की हालत उस भारतीय क्रिकेटर की तरह हो गई थी, जैसी हालत उसकी विदेशी पिचों पर बाउंसर झेलते-झेलते हो जाती है और उनका मुँह उस मध्यमवर्गीय परिवार के झोले की तरह लटका हुआ था, जो महीने भर के राशन के बोझ से अपने मालिक के हाथों में लटका हुआ होता है और उस झोले के निचले फटे हुए हिस्से से बैगन झाँक रहा होता है।


पेड़ के नीचे बैठे नेता जी और लोगों के द्वारा उन्हें सुनने के लिए की गई घेराबंदी इस कथोपकथन के उपरांत टूटने लगी थी।हम नेता जी बगल में गए और पूछे- "और कैसा चल रहा है चुनाव प्रचार?"

उन्होंने कहा- आ गए जले पर नमक छिड़कने।

हम बोले- आपकी सरकार ने नमक को भी कहाँ सस्ता छोड़ा है, जिसे आलतू-फालतू जगहों पर छिड़क सकें!



फोटो साभार-:गूगल

4 comments:

  1. मुंशी प्रेमचंद की छाप तुम्हारे लेखनी को चरितार्थ कर रहे हैं
    संभावनाओं के समंदर को मेरा कोटि कोटि नमन।

    ReplyDelete
  2. साहित्य के महानायक से मेरी तुलना न कीजिये।उस लायक नहीं हुआ हूँ अभी।

    आपको मेरा प्रणाम पहुँचे।🙏

    ReplyDelete
  3. बहुत सार्थक व्यंग है गिरगिटिया फितरत वाले नेताओं का सही चरित्र चित्रण किया आपने। यूँ ही लिखते रहिये और आगे बढ़ते रहिये। हार्दिक शुभकामनाएं।

    ReplyDelete