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Monday, 22 March 2021

इतिहास का ढोल!

बिहार

 


हाँ, हम उसी बिहार से हैं जहाँ के लोगों के पास दस अंकों के मोबाइल नंबर में सिर्फ जीरो-जीरो होता है।(कोरोना जाँच घोटाला) ऐसा हमने आर्यभट्ट के सम्मान में किया था। वही बिहार से हैं जहाँ पर एक प्रख्यात गणितज्ञ को मरणोपरांत एक एम्बुलेंस तक नहीं मिला सका, वही बिहार से हैं जहाँ की शिक्षा व्यवस्था पंचवर्षीय योजना बन चुकी है। वर्तमान में और ऐसे कई उदाहरण हैं जिसपर हम गर्व से अपने सर को नीचे कर सकते हैं!


हमारे पूर्वजों ने एक बढ़िया ब्रांड का महंगा कपड़ा हमारे लिए छोड़ दिया है। उन्हें परलोक सिधारे वर्षों बीत चुके हैं और अब हमारी खद्दर की धोती भी खरीदने की औकात नहीं बची है! वर्तमान में लोग जब हमारी अकर्मण्यता पर उँगली उठाते हैं तब हम उन्हें बताते हैं कि हमारे पास भी एक पूर्वजों का दिया हुआ बढ़िया सूट है। कोई ऐसे-कैसे हमें निकम्मा कह सकता है!


खैर, आज बिहार दिवस है और आज हम बिहारी अपने गौरवपूर्ण अतीत को याद करके लहालोट होंगे।धतिंगो का नाच करेंगे। आह बिहार से वाह-वाह बिहार करेंगे। अपने आप को आईएस उत्पादक की संज्ञा देते हुए शर्माएँगे और बिहारी होने पर गर्व करेंगे। ऐसा कहना ग़लत नहीं होगा कि हमलोग अपने इतिहास का ही खा रहे हैं और उसको खाते-खाते हम उसकी गुठली तक को खाकर खत्म कर चुके हैं। अब बस कोई देख न ले कि हमारे पास कोई फल खाने को बचा नहीं है तो हम अपने मुँह पर हाथ रखे रहते हैं और आह इतिहास-सु स्वादु इतिहास-गौरवपूर्ण इतिहास का चटकारा लगाते रहते हैं।


और इनसब की आड़ में अपने घनघोर जातिवाद से लेकर खराब राजनीतिक व्यवस्था को स्थान विशेष में रख लेते हैं और वर्तमान में क्या हो? कैसे हो? सोचना छोड़कर अपने पिछड़ेपन के कारकों को नजरअंदाज करके अपने मन को अशोक और बुद्ध के काल में विचरण करवाते हुए रात को रोज रात को सो जाते हैं।अपने इतिहास पर गर्व करना गलत बात नहीं है परंतु, हमें अपने वर्तमान को भी देखना बेहद जरूरी है क्योंकि जब हम इतिहास बने तो आने वाला भविष्य भी हमारा नाम उसी सम्मान और ओज से ले जैसे हम अपने पुर्वजों को याद करके फुले नहीं समाते हैं।


फिर कल से वही... 'वोट अपने जाति के पड़े के चाही' वाली मानसिकता से दिन आरम्भ कर लेते हैं।हम बिहार वासी को अपने गौरवशाली इतिहास के चिरकालिक सन्नाटे में आत्ममुग्ध होकर विहार करने का लत लग गया है। ये लत दारू से भी अधिक हानिकारक है, जिसपर कोई भी सुशासन बैन नहीं लगा सकता है, क्योंकि यह हम सब के अंदर में ही उत्पादित हो रहा है। इतिहास पर मुग्ध होने की फैक्टरी से निकले वाला धुआँ हमें हमारे वर्तमान को देखने नहीं दे रहा है। यह धुआँ  मंजिल के रास्ते में पसर गया है भ्रष्टाचार की तरह। भ्रष्टाचार आलसी होता है। यह एकबार जहाँ बैठ गया उठता नहीं है, पसर जाता है और धीरे-धीरे अपनी टांगे फैलाता जाता है। कोरोना है यह। एक बार फैला तो फिर ये किसी भी मास्क और सेनिटाइजर से शांत नहीं होगा।खैर, हमारी आँखों की पुतलियों पर चाणक्य और आर्यभट्ट की कृतियों और विद्वता ने इस तरह से पर्दा लगा दिया है कि हमें यह दिखाई नहीं देता कि एक सड़ी हुई बीमारी हमारे यहाँ सैंकड़ों बच्चों को खा जाती है। बाढ़ से बचाने वाले बांध को चूहे खा जा रहे हैं।  बाढ़ प्रत्येक साल लोगों का भविष्य बहा ले जा रहा है और उसी बाढ़ के पानी में नेताओं का ज़मीर प्रत्येक साल थोड़ा थोड़ा डूबते-डूबते अब लगभग समाप्त हो चुका है।


वर्तमान में हम अपनी जाति से आने वाले नेताओं के द्वारा किये गए भ्रष्टाचार और बलात्कार तक को समर्थन देते हुए अपनी मूँछों को गर्व से ऊपर उठाते हैं। हमारे भीतर अज्ञानता और रूढ़ सोंच  इस प्रकार चौकड़ी मार के बैठ गया है कि हमारे घर में भोजन हो न हो इसपे सोचने तक नहीं देता वहीं हमारे नेता हमें ही लूट के अपने घर भर रहे हैं और हम उनके लिए जान तक देने को तैयार हैं।अपने इतिहास पर गर्व करना गलत बात नहीं है परंतु, हमें अपने वर्तमान को भी देखना बेहद जरूरी है क्योंकि जब हम इतिहास बने तो आने वाला भविष्य भी हमारा नाम उसी सम्मान और ओज से ले जैसे हम अपने पुर्वजों को याद करके फुले नहीं समाते हैं।



खैर, इसमें कोई दो-मत नहीं है कि हमारा अतीत गौरवपूर्ण रहा है किंतु उसी को ढोना और उसी के नाम पर अपना नाम बनाना तो ठीक उसी प्रकार हुआ कि- स्वयं वर्तमान में हमने एक दुभ भी न उखाड़ी हो लेकिन, अपने अकूत बपौती सम्पत्ति को दिखा-दिखा के अपनी अकर्मण्यता को छिपा रहे हैं।यह एक प्रकार का भ्रष्टाचार है जो हमारे भीतर और हमारे वर्तमान में फैला हुआ है।इतिहास के सब्ज़बाग दिखाने  का भ्रष्टाचार। इतिहास को इतना दिखाया गया है कि वह अब घिस चुका है।रहम करें उसपर।


ऐसा नहीं है कि वर्तमान में बिहार  में सिर्फ कमियाँ ही हैं, बस फिलहाल यहाँ  बढ़िया कुछ हो नहीं रहा है और स्वयं से होगा भी नहीं।हमें ही कुछ करना होगा। जिसे जो काम मिला है उसे उसके काम को ईमानदारी से करना होगा। तभी कुछ हो पायेगा। 


थोड़ी हिम्मत जुटाकर कुछ 'बढ़िया' होने के लिए तैयार भी होता है तो यहाँ का सिस्टम उसका पैंट पीछे से खींचकर खोल देता है। 'बढ़िया' बेचारा शरमा के भाग जाता है। कहें तो बिहार के कौरवों की सभा में बेचारे 'बढिया' का चीरहरण हो रहा है और फिलहाल कोई 'कन्हैया' उसे बचाने आएँगे, ऐसा लगता नहीं है।


फिर भी, "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" वाक्य के अनुसार बिहार से प्रेम तो है ही। लेकिन, इस जन्मभूमि को इसके गौरवपूर्ण इतिहास के जैसा बनाने के लिए मैदान में उतरना होगा, अपने ऐतिहासिक तथ्यों से प्रेरणा लेकर। न कि, इसका ढोल बना के पीटने से।ऐसे एकदिन ढोल फट जाएगा!


Tuesday, 9 March 2021

चाय और चुनाव

फोट-: ट्विटर
 


हमारे देश में चुनाव शाश्वत है, क्योंकि हम लोकतंत्र के सच्चे और सबसे बड़े ध्वज वाहक जो हैं।जो सबसे बड़ा विषय वस्तु चुनावों में हावी रहता है वो है 'चाय', खासकर के 2014 से तो यह विषय सर्वोच्च शिखर पर है। चुनाव के समय सभी बड़े नेता चाय में अपनी राजनीति रूपी दूध और शक्कर को स्वादानुसार प्रयोग करते रहते हैं ताकि बढ़िया कड़क जीत की सुस्वादु चाय तैयार हो सके।खैर, बंगाल में चुनाव है और वहाँ भी यह विषय अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुका है।हाल ही में जो चाय के साथ नई नेत्री ने अपना गठबंधन किया है वो हैं वहाँ की वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी।


इसी चाय और चुनाव के परस्पर सम्बंध को संदर्भित करते हुए मैंने "चाय और चुनाव" शीर्षक के साथ कविता लिखी है....


"चाय और चुनाव"


मेरी समस्या,

तुम्हारी समस्या

रमुआ, बुधिया और

खलिफवा की समस्या,

उनके बैल, उनके खेत और 

उनकी बछिया की समस्या

कभी खत्म नहीं होगी;

उसको जात-पात

धर्म-कुकर्म, आदि-अनादि

फलना-ढिमकना के आँच पर

जुमलों के दूध में

सत्ता और शक्ति के शक्कर में

घोलकर

वोटनुमा कप में डालकर

नेता जी उसे पी जायेंगे

चुनाव को चाय बूझकर;

लेकिन 

हमसब की समस्या बची रहेगी

जस का तस

जैसे चाय पीने के बाद

अंत में,

 कप के सतह पर

बच जाती है, चायपत्ती!

Monday, 1 March 2021

बसंत का घोटाला!

 

【संदर्भ-: अभी-अभी फरवरी के महीने ने रुखसत ली है।फरवरी माह में दिनांक 27 को दिल्ली का तापमान 31.7℃ पहुँच गया था।】


बसंत ऋतु का नाम सुनते ही मन का उपवन खिल उठता है।ठीक वैसे ही जैसे संसद में किसी भी सामाजिक योजना का नाम सुनकर आम-जन को महसूस  होता है। जैसे बसंत के आगमन से लगता है कि हमारे चारों तरफ खुशहाली फैल जाएगी और माहौल खुशबुनुमा हो जाएगा, ठीक वैसे ही योजनाओं के नाम सुनकर लगता है अब हमारी समस्याएँ जो हमारे किराए के  घर में स्थाई रूप से एक कमरा लेकर बैठी है वो अब घरविहीन हो जाएगी और हमसब आराम से इस जीवन में समस्या के बिना भी जीवित रहने का अपना सपना पूरा कर सकेंगे!


लेकिन ऐसा हो नहीं पाता।जो हो पाता है उसे घोटाला कहते हैं।उल्टा, हमारी समस्याएँ जो एक घर में बैठी हुई थी अब खटिया लेकर उसपर सो जाती हैं और हमलोग खटिया से जमीन पर आ जाते हैं। इस बार बसंत के साथ भी ऐसा ही हुआ। 

प्रकृति के संसद में यह योजना बनी कि धरती पर अनेक समस्याओं से पीड़ितों के लिए इसबार  सुहाना मौसम का रिलीफ पैकेज जारी किया जाएगा और आमजन आनंद का सुख लें इसके लिए बसंत को अधिक दिनों के लिए धरती पर प्रवास करवाया जाएगा। सबकुछ तय हो गया। बसंत को धरती पर पहुँचाने का टेंडर भी पास हो गया।हमारे यहाँ टेंडर-ठिका नेताओं के या बड़े लोगों के सम्बन्धियों को देने की परंपरा है।हमलोग परम्परा प्रेमी हैं और उसमें भरोसा रखते हैं तथा सदैव परम्परा का स्टेटस-को बनाये रखते हैं। इसलिए परम्परा का पालन करते हुए बसंत को धरती पर भेजने का ठिका गर्मी के एक सम्बन्धी को मिल गया। अब बस धरती पर बसंत को समूल पहुँचाने का काम रह गया था। बसंत धरती पर अपने प्रस्थान करने की तैयारी ही कर रहा था तबतक  ऊपर से फोन आया, हमारे यहाँ कुछ भी अच्छा होने वाला होता है तो ऊपर से फोन आ जाता है और ऊपर में जो बैठा होता है उसे अच्छा करने में अच्छा नहीं लगता है। खैर, बसंत को ऐसा कहा गया कि- "इसबार उसे धरती पर भेजा नहीं जाएगा, उसे ऊपर से नीचे तक बैठे बाबुओं के बीच कमीशन के रूप में बांटा जाएगा तथा जनता को मूर्ख बनाया जाए इसके लिए धरती पर उसका सिर्फ चेहरा दिखाकर,  गर्मी को पीछे से भेज दिया जाएगा क्योंकि गर्मी जी हमें चुनाव में अधिक चंदा देते हैं।" हमारे यहाँ की ऐतिहासिक परम्परा रही है कि चुनावी चंदा देने वालों को नेता अपना बाप मानते हैं और उनके लिए ये नेता दस-बीस करोड़ जनता की जान भी ये कहते हुए ले सकते हैं कि- "हमारा ये जान-धन लेने की योजना  राष्ट्रहित में है और ये लोग इस देश में जनसख्या बढ़ाने का दुःसाहस कर रहे थे और ये निर्थक ही सांस लेकर देश के ऑक्सीजन स्तर को कम कर रहे थे! ये विदेशी साजिश में भी शामिल थे और सबसे महत्वपूर्ण बात कि ये धरती पर बोझ बने हुए थे, इसलिए इन्हें मारकर धरती का बोझ हल्का कर दिया।"


जैसा होना था वैसा ही हुआ, बाजे-गाजे के साथ बसंत रूपी योजना को हाथी-ठीकेदार (ठीकेदार हाथी जैसा ही होता है।आमजन रूपी कुत्ता उसपे भौंकते रहते हैं उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि 'ऊपर' में उसके भी मौसा जी बैठे होते हैं जो उसे फर्क पड़ने नहीं देते।) पर बैठा के जनता के सामने लाया गया। जनता खुशी से ठीक वैसे ही झूम रही थी जैसे प्रधानमंत्री आवास योजना में घर पास होने पर एक गृहविहीन खुश होता है।जश्न में लोग जयकारे लगा रहे थे।आ गए अच्छे दिन!आ गए अच्छे दिन! हम सभी जानते हैं कि खुशी से झूमते लोगों को कुछ दिखाई नहीं देता इसलिए तो उन्हें बढ़ती पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस के दाम में भी कोई न कोई देशहित होता दिखाई देता है! इसी मौके का लाभ उठाकर हाथी-ठीकेदार ने अपने सूढ़ से बसंत को पकड़कर दूर नेताओं के बंगलों की तरफ फेंक दिया।सुख का जन्मसिद्ध अधिकार इस लोकतंत्र में सिर्फ नेताओं और उनके टुच्चे लोगों को ही होता है क्योंकि वो दिन-रात जनता के खून चूसने का काम करते हैं!अब इधर खुशी से नाचते लोगों के ऊपर जब गर्मी का ताप रूपी झापड़ पड़ा तब जाकर कहीं उनकी चेतना वापस लौटी। 

तभी पसीना पोछते हुए एक विपक्षी दल के कार्यकर्ता ने कहा- इस बार बसंत का घोटाला हो गया! हम सरकार से इसपर एक उच्चस्तरीय सरकारी जाँच कमीशन बैठाने की मांग करते हैं।